बुधवार, 25 सितंबर 2013

वो

- रवि मीणा


वो खुशियों के लम्हे जीती है ,

मैं लम्हे-लम्हे मरता हूँ ,

वो बात नई-नई करती है ,

मैं कथा पुरानी पढता हूँ ;

वो कहती है मुझसे भूल

 वक्त अब जाओ पुराना,

जैसे ही वह कॉल बंद होती है ,

मैं तिल-तिल रोया करता हूँ।

वो वेटिंग केपल, डेटिंग केकल,

मेरे हृदयपटल पर बार बार लहरातें हैं।

पर वो इश्क नाम के किस्से

 आँसूं ही हर बार दुहरातें हैं।

जो दोस्त लोग समझातें हैं,

मुझको वे बेगाने लगते हैं ,

उस बेगानी लड़की के चक्कर में

सारे सच भी अफसाने लगते हैं,

जब भी मैं उसको

किसी और संग पाता हूँ,

हर बार हकीकत

दिल को मैं समझाता हूँ ,

पर जाने क्यों हर बार

हकीकत झूठी लगती है।

इन दो-दो आँखों की सच्चाई

एक दिल को सच्ची लगती है,

मैं उस मिथ्या पर

अब भी विश्वास जताता हूँ,

पराये की अमानत पर

अब भी अधिकार जताता हूँ।

उसके लफ्जों का संविधान

अधिकार मुझे बार-बार बतलाता है,

पर जाने क्यों यह दिल्ली-सा दिल

बार-बार मचलाता है।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें