सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

असहज करती है 'शाहिद'


"मुझे नाइंसाफी दिखाकर ख़ुदा ने इन्साफ के लिए लड़ना सिखाया |... क्या फ़र्क पड़ता है - मरने वाला भी इंसान होता है मारने वाला भी इंसान होता है |"

in the name of God 
" in service of the truth "

ये फिल्म एक बार फिर उन प्रश्नों को गहराई से उभार कर सतह पर लाती है जिनके बारे में हमें लगता है कि हमने पर्याप्त समाधान ढूँढ लिए हैं| ज़हीर के मुक़दमे की सुनवाई के दौरान जज कहते हैं कि टाडा कानून राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जरुरी है तो शाहिद कई बार ये दोहराते हैं कि आप किसी भी आदमी को पकड़ कर जेल में डाल दीजिये और फिर उस पर दस साल मुकदमा चले और इसके बाद आप उसे अंत में 'नॉट गिल्टी' कह भी दें तो ये तो कोई इन्साफ नहीं हुआ और उसके बाद वो करे तो क्या करे ?

निर्देशक हंसल मेहता और कहानीकार समीर गौतम सिंह ने एक बेहद ईमानदार फिल्म बनायी है जिसे राजकुमार यादव के असाधारण अभिनय का पूरा साथ मिला है | ये राजकुमार का अभिनय ही है जो आपको तीन चार मौकों पर बेहद असहज कर देता है | दंगों में जलते हुए लोगों और मरने पे उतारू भीड़ को देखकर डरने के भाव हों या जेल में पिटाई के दौरान डरने के - दोनों के बीच का जो फ़र्क होना चाहिए था वो उतना ही उनके द्वारा दिखाया गया है | निश्चित रूप से ऐसे कई मौके हैं जहाँ पर निर्देशक के द्वारा उन्हें अभिनय की अपनी ही बनायी हुई सीमाएं तोड़ने का भरपूर मौका मिलता है |

कहानी सुनाने का तरीका वैसे तो कोई नया नहीं है और कहानी में प्रयोग की सम्भावना भी नकारी नहीं जा सकती लेकिन कहानी सुनाने में कोई ख़ास प्रयोग किये नहीं गए हैं| तकनीकी तौर पर देखा जाये तो बहुत अच्छी क्षमता का कैमरा नहीं होने के बाद भी लैंडस्केप बड़े ही खूबसूरत दर्शाए गए हैं | एक प्रयोग बेहद अंत में स्पष्ट दीखता है जब शाहिद की हत्या का दृश्य आना होता है तो वैसी परिस्थितियाँ बनते ही फटाफट फेड इन और आउट होते हैं और अंत में शाहिद को गोली मारने पर बंद होते हैं | ये इंगित करना बैटरी के डिस्चार्ज होने पर जलने बुझने वाली स्थिति से प्रेरित लगता है |

फिल्म के अन्य क़िरदार वैसे तो गौड़ ही हैं लेकिन फिर भी अच्छे अभिनेताओं के द्वारा निभाए जाने से वो भी अपनी सार्थकता पाने में सफल हुए हैं | रांझाना से एकदम अलग क़िरदार में जीशान ने छाप छोड़ी है और एक दृश्य में वो अपने अभिनय के दम पर हमारा ध्यान एक बिना बाप वाले परिवार में बड़े भाई के त्याग और छोटे भाई की मनमर्जी के प्रति रोष की और ले जाते हैं | पत्नी और पहले तलाकशुदा परेशान महिला - मरियम के इन दोनों ही रूपों के साथ प्रभलीन संधू का अभिनय न्याय करता है | तिग्मांशु जी और विपिन शर्मा जी तो कुछ कहे जाने से ऊपर हैं |  इस फिल्म के लिए विशेष तौर पर विपिन शर्मा का बेहद नैसर्गिक अभिनय हमें हँसाए बिना नहीं छोड़ता और देखा जाये तो इस बेहद संजीदा फिल्म में सिर्फ कोर्टरूम का वो अंश ही ऐसा है जो हमें हंसने का मौका देता है | देखा जाये तो इस लिहाज से भी ये निर्देशक की बड़ी सफलता है| बात करें बलजिंदर कौर की जिन्होंने एक निम्न-मध्यमवर्गीय विधवा मुसलमान महिला के क़िरदार को जान दी है| हर मौके पर उनके चेहरे के भाव बहुत सशक्त लगते हैं | शालिनी वत्स भी वकील के रूप को अच्छे से प्रस्तुत करती हैं | मुझे व्यक्तिगत रूप से एक इंसान निराश करता है फिल्म में और वो हैं - के के मेनन| उनके अभिनय पर प्रश्न नहीं किया जा सकता लेकिन निराशा उनके छोटे रोल को लेकर हुई| अपने सबसे पसंदीदा अभिनेताओं में से एक को बहुत थोड़ी देर के लिए देखना थोडा कष्ट देता है लेकिन उतनी ही देर में वो अपने डायलाग डेलिवरी से मोहित कर जाते हैं|

वैसे , सिर्फ इतना ही ये फिल्म नहीं है | फिल्म के अलावा भी ये फिल्म बहुत कुछ है | एक अपील है शाहिद आजमी को केंद्र में रखते हुए| एक बात लगभग अंत में आती है कि समाज, पुलिस और मीडिया किसी को भी बिना मुकदमा चले ही अपराधी मान लेते हैं लेकिन अब ये जिम्मेदारी न्यायालय की बनती है कि वो उनकी इस गलती को सुधारे और कठघरे में आदमी के साथ शाहिद आजमी को भी इन्साफ मिल सके| सीधे शब्दों में कहें तो ये फिल्म मानवाधिकार की उन दलीलों की ही गूँज है जो कभी शाहिद आज़मी ने खुद अदालतों में दी होंगी |

- निशांत


Shahid- official trailer

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

किरदार - नज़्म



लेखन एवं आवाज़ - निशांत सिंह
सम्पादन, निर्देशन एवं विशेष सहयोग - श्री ओम प्रकाश शर्मा जी 

मित्रों , किरदार एक कहानी-श्रृंखला है | खुद के अन्दर हम सभी न जाने कितने किरदार समेटे हुए हैं जो आपस में लुका छिपी खेलते रहते हैं | कभी हमारे ही भीतर का कोई किरदार हमें बुद्धिजीवी मानता हैं और फिर हमारे ही भीतर का कोई दूसरा किरदार कई विषयों को बौद्धिक चर्चा के दायरे में लाने से संकोच कर जाता है | विश्वास और तर्क की इन लड़ाइयों में हम अक्सर इस प्रश्न पर आकर अटक जाते हैं कि कौन-सा पक्ष उपयुक्त है | दार्शनिक प्रश्नों के समाधान खोजती ऐसी ही एक यात्रा है 'किरदार' | 

इन कहानियों के किरदार इन प्रश्नों में उलझते , उनकी लहरों में तैरते-उतराते अंत में सच को ढूंढते हुए वे अपने सामने आईना रखा हुआ पाते हैं | अब इसके आगे लेखक कुछ नहीं निर्णय करना चाहता -कि क्या जो कुछ आईने में दिख रहा है उसे सच कहा जाये या नहीं ! वो तो श्रोताओं और पाठकों की समझ को कम आँकना होगा |

उम्मीद है कि आप इस श्रृंखला को उत्साह से सुनेंगे और पसंद भी करेंगे और एक नए कहानीबाज को अपनी समीक्षाएं भी समय समय पर देते रहेंगे | जल्द ही आपके लिए प्रस्तुत करेंगे पहली कहानी, धन्यवाद !

सम्पादन, निर्देशन एवं विशेष सहयोग - श्री ओम प्रकाश शर्मा जी 
श्री ओम प्रकाश जी विविध भारती कानपुर में वरिष्ठ कार्यक्रम-प्रस्तोता है और पिछले कई वर्षों से आई आई टी कानपुर के रेडियो ९०.४ को अपनी सेवाओं से लाभान्वित करते रहे हैं |

धन्यवाद - श्रीमती वत्सला जी , श्री अमित त्रिपाठी जी , श्री देव जी एवं समस्त ९०.४ रेडियो टीम

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

चित्र-पटल


आईआईटी कानपुर के निदेशक डॉ इन्द्रनील मन्ना काव्यांजलि समारोह में श्रोताओं को संबोधित करते हुए


मीडिया के द्वारा हमारा उत्साह-वर्धन 


काव्यांजलि कार्यक्रम का आनंद लेते श्रोतागण 


काव्यांजलि के आकर्षण मशहूर शायर श्री अंसार कंबरी जी (बायें से प्रथम ) 




हमारी  आगामी प्रस्तुति रेडियो कहानी कार्यक्रम 'क़िरदार'



बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

आहुति

- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' 


मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?


कांटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?

मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूं तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?



मैं कब कहता हूँ विजय करूं मेरा ऊंचा प्रासाद बने ?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुँधली-सी याद बने ?

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?


मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?


वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !


मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आँधी सा और उमड़ता हूँ

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !


भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने |


मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

खिड़की और दरवाजे के दर्मियाँ



निशांत 


अबकी बरस की 
पूरनमासी वाली रात ,
हाँ, उसी सर्द रात को,
प्रेमचंद वाली पूस की रात से 
थोडा ज़्यादा सर्द रात को,
खिड़की और दरवाज़े के दरम्यान 
वक़्त तराशा था , जब बैठा था ।

खिड़की के उस पार दिखे थे 
दिन गिरते उठते बचपन के 
और गौर से देखा , पाया  
झूले पे अंगड़ाते सावन को  
एक अचानक आहट आई 
दरवाज़े पर मानो टूटा हो 
वक़्त का टुकड़ा अभी अभी 
मुड़कर पीछे देखा पाया 
घर की बिल्ली गिरा गयी थी 
गेंदे वाला मिट्टी का गमला 
इसी फेर में बिखरा गयी थी 
उन फूलो को फर्श पर जो कभी 
गमलो में अटके हुआ करते थे ,
टुकुर टुकुर देखा करते थे ।
निकली छोटी सी आह 
मानो रुक ही ना पाई हो 
कोशिश करके रुकते-रुकते भी ।
मानो छलक पड़ी हो 
कोशिश करके रिसते रिसते ही ।
वापिस खिड़की से जब झाँका 
नज़र गायब थी ,
नज़र ओझल थी ।
खिड़की और दरवाज़े के दरम्यान 
दूरी बहुत थी 
फ़ासले तमाम थे।
खालीपन पसरा बैठा था ,
खुद से मेरा संवाद रुका था।
तभी कहीं से आई हँसती 
बीच बीच में शोर मचाती 
लड़ लेतीं पहले आपस में 
अब देखो हैं रोती गाती ।
ये सखियाँ हैं उड़ी कहाँ से 
ये सखियाँ उड़ चली कहाँ तक 
ये सखियाँ हैं कोई फ़रिश्ते 
यहीं दरमियां मंतर पढ़ती 
यहीं दरमियां कलमे गातीं 
खिड़की से हैं आती-जाती 
दरवाज़े से जाती-आती 
सोंधा करते यही दर्मियाँ 
ये कानों में कहती जातीं -
गुजरा वक़्त खिड़कियों से दिखता है 
गुजरे वक़्त के दरवाज़े नहीं खुलते ।
खिड़की और दरवाज़े के दर्मियाँ 
गुजरा वक़्त तराशा था, जब बैठा था।

( निशांत जन-अभियांत्रिकी में तृतीय वर्ष के छात्र हैं )

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

सूखे पत्ते और मिट्टी

- ओम प्रकाश शर्मा

आम के हरे दरख़्त के तले, 
चंद सूखे पत्ते पड़े हैं सिमटे हुए, 
रगें... 
ढीली पड़ चुकी हैं इनकी, 
लहू... 
सूख चूका है इनका|
लफ्ज़ लरजते थे 
इन पर कभी, 
अब मद्धम पड़ चुके हैं| 

पाँव टकरा जाता है
इनसे किसी का तो 
करवट लेते चीं-चूं सा 
कुछ बोल देते हैं. 
जुम्बिश कम ही है इनमें 
कोई हवा का झोंका आये 
उड़ा कर ले जाये इन्हें, 
दबा दे मिटटी की दरारों में, 
मिटेंगे, गलेंगे, उसी मिटटी में कहीं, 
फिर उगेंगे किसी दरख़्त की शाख पर, 
फिर उकेर देगा वक़्त, 
लफ़्ज़ों के, दस्तानों के, 
लरजते मोती इन पर |

( लेखक ऑल इंडिया रेडियो, कानपुर में वरिष्ठ कार्यक्रम-प्रस्तोता हैं )