शनिवार, 28 सितंबर 2013

सच क्या है ?

- पूजा अग्रवाल 

1.
 सच क्या है ?
 एक गुज़रता हुआ कारवां हैं 
 रेत में कुछ गड्ढे से रह जाते हैं 
 लोग उसी को सच समझ लेते हैं 
 रेत में कुछ निशाँ 
 कुछ पैरों के 
 कुछ यादों के 
 सच क्या है 
 एक गुज़रता हुआ कारवां हैं  
 दूर क्षितिज पर जब 
 पंछी अपने घर को जाते दिखते हैं 
 तब बसेरा ही सच लगता है 
 दुआ जब क़ुबूल हो जाती है 
 तब इबादत ही सच लगती है 
 पर उस दुआ का क्या 
 जो क़ुबूल नहीं होती 
 क्या उपरवाला तब भी सच लगता है 

 सच क्या है 
 एक गुज़रता हुआ कारवां हैं 
 सांसें जब ज़िन्दगी और मौत के बीच खेलती हैं 
 तो उस पल कुछ सच नहीं 
 और उस पल सब सच है 
 बस एक जंग है 
 सांस की सांस से 
 रह जाए तो जीत 
 नहीं तो शिकस्त 

 सच क्या है 
 एक गुज़रता हुआ कारवां हैं 
 किसी ने राम में सच देखा है 
 और किसी ने कान्हा में 
 सच वोह है 
 जिसने प्रतिष्ठा के लिए प्रेम को त्यागा 
 या सच वोह है जिसने प्रेम के लिए प्रतिष्ठा?
 राम ने जब सीता को त्यागा 
 तो वोह मर्यादा पुरषोत्तम कहलाये 
 और जब किसना ने प्रेम को ही सर्वोच्च माना 
 तो वोह कहलाये पूर्ण 
 सच क्या है 
 एक गुज़रता हुआ कारवां हैं 
 बात जो जुबां से निकल जाती है 
 वोह जैसे अग्नि से भस्म हो जाती है 
 और जो मन में रह जाती है 
 वोह सीप में छिपे मोती के तरह 
 अनमोल हो जाती है 
 सच जो हुआ बयान 
 वोह भस्म  
 और जो कह भी कहा न गया 
 वोह अनमोल 
2 .
 ज़िन्दगी कब  
 हाथों से निकल गयी 
 पता ही नहीं चला 
 हथेली पर कुछ सोने के दाने 
 रख कर आया था मैं 
 ज़िन्दगी के सामने 
 ज़िन्दगी कब वो दाने चुरा के ले गयी 
 पता ही नहीं चला 
 पता है क्या था उन सोने  के दानों में 
 वो दाने थे मेरी सोच के 
 मेरे विशवास के 
 मेरे आदर्शों के 
 आंधी नहीं आई कोई 
 बस हलकी हवा चली 
 और मेरे दाने 
 हथेली से सरक गए 
 आज हथेली सूनी है 
 उन पर बोझ नहीं है 
 किन्ही सोने  के दानो का 
 पर वो दाने तो 
 वो ज़मीन थी 
 जिसपर मैं टिका था 
 आज वो दाने क्या गए 
 पैर के नीचे ज़मीन भी नहीं रही 
 अब मैं निराधार 
 बेमकसद 
 एक बार फिर आया हूँ 
 ज़िन्दगी के सामने 
 ज़िन्दगी की मुट्ठी में 
 मेरे दाने बंद हैं 
 मेरे ही दाने 
 मुझे दिखा कर 
 ज़िन्दगी अब 
 मेरा मज़ाक बनाती है 
 कहाँ से लाऊँ 
 उस सोच को फिर से 
 जो मेरा शस्त्र थी 
 जिसे धारण कर मैं 
 ज़िन्दगी जीतने आया था 
 कहाँ गया वो 
 मासूम विशवास 
 वोह अल्हड़ जिद्द 
 वो कुंवारी कोरी आस 
 जिसे लेकर मैं आया था 
 ज़िन्दगी के पास 
 कैसे सरकने  दिया 
 मैंने उन्हें  अपनी हथेली से 
 कैसे छोड़ दिया उनका साथ 
 क्या इतना ही नाज़ुक 
 रिश्ता था 
 मेरा उन खयालात से 
 की कमसिन झोंके 
 ने उस की डोर तोड़ दी 
 मुझे जन्म से 
 सौगात में नहीं 
 मिले थे वो सोने के दाने 
 वोह तो मेरे खुद के 
 जोड़े हुए थे 
 कहीं कुछ किसी किताब 
 से चुराया था 
 कुछ किसी दोस्त 
 की शरारत ने सिखाया था 
 तो कोई तन्हाई में बैठे 
 मेरे ज़हन में उतर गया था 
 ओस की बूँद की तरह 
 वोह सब मेरे हमसफ़र 
 बन गए थे 
 वोह सारे दाने 
 आज उनके बिना 
 खोया सा महसूस 
 करता हूँ खुद को 
 आज फिर आया हूँ 
 निहत्था जब ज़िन्दगी
 के सामने 
 तो ज़िन्दगी 
 किसी मोहिनी अप्सरा की तरह 
 मेरे दानों के बदले 
 कुछ कंकडों 
 से मुझे रिझाना 
 चाहती है 
  पता है क्या है 
 उन् कंकडों में 
 उन में है 
 बेबसी 
 बेचैनी 
 और बेसबूरी 
 ज़िन्दगी मुझ से कह रही है 
 की या तो यह कंकड़ ले लूं 
 या खाली हाथ ही रहूँ 
 हथेली को वज़न की 
 आदत पड़ गयी है 
 इसलिए 
 चुप चाप 
 मैं ज़िन्दगी से 
 वोह कंकड़ क़ुबूल 
 कर रहा हूँ 
3.
 तन्हाई क्या है?
 बडे बडे दर्शनशास्त्रियों 
 ने कहा है कि 
 सब एक हैं 
 सबका एक ही 
 आधार है 
 किसी ने उस 
 आधार को नाम दिया है 
 अल्लाह 
 किसी ने 
 मसीहा 
 तो किसी ने 
 राम 
 जब सब एक हैं 
 और जड़ से जब सब जुडे हैं 
 तो तन्हाई क्या है 
 और क्यों सताती है हमें?
 तन्हाई तो नाम है 
 उस एहसास का 
 जो सबका होके भी 
 किसी का नहीं 
 अकेले में मैं बैठा हूँ 
 तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ 
 अकेला हूँ, 
 पर तनहा नहीं 
 मैं महफ़िल में हूँ 
 तुम भी साथ हो 
 पर मेरा मन 
 यहाँ नहीं 
 मैं साथ हूँ 
 पर तनहा हूँ 
 अकेलापन 
 बांधा जा सकता है 
 उसकी एक सीमा है 
 गर किसी का साथ है 
 तो अकेलेपन का कोई वजूद नहीं 
 पर तन्हाई 
 तन्हाई को सीमा में नहीं 
 बाँधा जा सकता 
 तुम साथ हो 
 फिर भी मैं तनहा हो सकता हूँ 
 पता है क्यों 
 क्योंकि तुम्हारा साथ 
 मेरे मन के अंधेरे को 
 रौशन नहीं कर पा रहा 
 तन्हाई तो एक अँधेरा है 
 जो मेरे ऊपर 
 लिहाफ की तरह 
 पड़ी हुई है 
 जो मुझे ज़िन्दगी के 
 थपेड़ों से बचाता भी है 
 और ज़िन्दगी से 
 छुपाता भी है 
 तुम छुयोगे भी 
 तो मेरी तन्हाई को 
 मुझे नहीं 
 मैं अपनी तन्हाई में 
 कहीं खो गया हूँ 
 अब मुझे अन्धेरा पसंद आने लगा है 
 आदत पड़ गयी है 
 और अगर अब कोई 
 मेरी काली स्वाह 
 तन्हाई को 
 छूता है 
 तो मुझे अच्छा नहीं लगता 
 आदत बड़ी चीज़ है 
 जिसे अमावस्या की आदत हो 
 उसे पूनम का चाँद 
 डरा सा जाता है 
 जब आदत रात की हो 
 तब दिन का उजाला 
 अंधा कर जाता है 
 पता है अब मेरा साथी कौन है 
 मेरी तन्हाई 
 मैंने उसे एक नाम दिया है 
 हमसफ़र का नाम 
 पता हैं क्यों 
 क्योंकि जहाँ सब साथ छोड़ 
 जाते हैं 
 वहां वो होती है 
 मेरा हाथ थामने के लिए 
 जैसे कोई सुहागन 
 सेज पर अपने पी 
 का इंतज़ार करती है 
 वैसे ही मेरी तन्हाई 
 मेरा इंतज़ार करती है 
 की कब सबसे 
 रिश्ता तोड़ 
 उसके पास आऊँ 
 और वोह 
 मुझे समेत ले 
 जैसे 
 कोई  सागर 
 डूबे हुए जहाज को 
 समेत लेता है 
 अपनी लहरों में 
 अपनी गहराई में
 आज मैं अपनी तन्हाई में 
 इस कदर डूबा  हूँ 
 की तन्हाई एक नशा बन गयी है 
 एक सुरूर 
 जो चढ़ चढ़ कर बोलता है 
 अब साथ अच्छा नहीं लगता मुझे 
 क्योंकि जहाँ 
 सब छोड़ जाते हैं 
 वहाँ मेरी तन्हाई 
 मुझे अपनाती है 
 मेरे पाले हुए उस कुत्ते की तरह 
 जिसे मैं लाख बार ठुकरा दूं 
 वोह मेरे पीछे आ जाता है 
 पूंछ हिलाते हुए |

( लेखिका मानविकी विभाग में शोधछात्रा हैं )

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