शनिवार, 28 सितंबर 2013

अडिग

- रवि मीणा 


जाने क्यों लोग भूल 'रवि' को 

चाँद की तरफ चले हैं,

वो भी उजाले का समझौता करने,

शायद उन्हें डर है 

झुलस जाने का,

या फिर गुलाम है वो

चाँद की ख़ूबसूरती के,

या फिर उनकी रूह 

रात में जीती हैं,

या उल्लुओ की जाति से 

कोई रिश्तेदारी है उनकी,

या फिर अंधेरो में 

कुछ भूल आये होंगे 

उसे ही खोजना होगा।

साथ में चलने के प्रस्ताव 

कई आये थे मुझे भी,

हाँ , पैर उठे भी थे,

लेकिन जज्बात--दिल ने 

हामी ना भरी,

तहजीब ने इजाजत ना दी,

तो कदमो का पीछे खिसककर ,

अडिग हो जाना लाजिमी था।

और फिर यह नज़्म लिखना 

तो और भी लाजिमी था। 

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