सोमवार, 13 जनवरी 2014

कुछ सपने


- रवि मीणा 














कुछ स्वप्न अभी भी अनदेखे,
कुछ लक्ष्य अभी भी आधे हैं,
बहुत जटिल है दुनियादारी,
हम तो सीधे-साधे हैं,
कुछ कहते हैं,
मत विस्तार करो, पछताओगे,


देखा तो पाया-
सब के सब कच्चे धागे हैं;
मैं गड्ढ़े से धरती पर आया हूँ,
अम्बर में उड़ना चाहता हूँ|

मैं मेंढक सा ज्ञानी हूँ,
आकाश बराबर
ज्ञान जुटाना चाहता हूँ|
कुछ कहते हैं,
मत उछलो, गिर जाओगे,
देखा तो पाया,
सब मनमौजी
गिरते-पड़ते साकी हैं,
कुछ स्वप्न अभी भी अनदेखे,
कुछ लक्ष्य अभी भी बाकी हैं|

(लेखक आई आई टी कानपुर में द्वितीय वर्ष के छात्र हैं)


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