मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

माँ, मैं कायर नहीं !

- श्री सोमनाथ डयानक

एक उच्चतम शिक्षण संस्थान का हॉस्टल क्रमांक चार| कैंटीन से उठती हुयी काफी की महक और गलियारों से आता हुआ छात्रों का उल्लास भरा शोर, आज पियूष को आहत कर रहे थे| हॉस्टल का ये विशिष्ट वातावरण कल तक उसके अंदर एक स्फूर्ति और ताजगी भर देता था, और फ्रेंड्स के साथ रूम में बैठ कर वह भविष्य की नयी नयी तकनीकी डिजाइन करता था| किन्तु आज वह हताशा के गहन अन्धकार में जा पंहुचा था| अभी कुछ महीने पूर्व ही इस संस्थान में आने का गौरव उसे प्राप्त हुआ था| गृह-नगर के प्रत्येक घर में उसके इस अभूतपूर्व चयन की चर्चा हुयी थी| लेकिन आज मिड-सेम के दौरान लगातार दूसरा पेपर बिगड़ने से वह व्याकुलता की सीमा के लाल निशान पर जा पंहुचा था| यद्यपि वह समझ रहा था कि यह दौर अनायास ही नहीं आ गया है| दरअसल यहाँ अध्ययन के कुछ बदले हुए स्वरुप के साथ अब तक वह अपना सामंजस्य नहीं बैठा पाया था| संभवतः उसके सरल मन-मस्तिष्क ने एक प्रतिष्ठित संस्थान में हुए अपने चयन को ही जीवन की अंतिम उपलब्धि मान लिया था| और इस सोच के चलते उसने एक नये सिस्टम के साथ तालमेल बैठाने या समय एवं परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढालने के प्रयास ही नहीं किये थे| प्रारंभ के कुछ दिनों तक तो उसने अपनी समस्याओं को मित्रों के समक्ष रखा भी, किन्तु जैसे जैसे दिन गुजर रहे थे उसकी सोच भी बदलती जा रही थी| अब किसी के साथ अपनी समस्या शेयर करने में उसे कठिनाई महसूस होने लगी थी| यह सोच कर कि वह अन्य साथियों के साथ नहीं चल पा रहा है, वह स्वयं को ही कमजोर मानकर क्रमशः हीन भावना का शिकार होने लगा| अपरिचित सी व्यवस्था एवं इससे कभी न उबर पाने का डर उस पर हावी हो गया था| साथियों से दूरियां बढ़ गयी थी, और वह गुम-सुम सा रहने लगा था| 
       
नये सिस्टम को समझने एवं उसके अनुसार स्वयं को ढालने की जगह उसने स्वयं को ही कमतर आंकने की भारी भूल की थी| लेकिन अब तो देर हो चुकी थी| उसके प्राप्तांक संस्थान के मानक स्तर से नीचे आ चुके थे| घर वालों को फोन पर वह केवल इतना बता पाया था कि पेपर बिगड़ गया है| अब वह क्या करेगा, साथी क्या सोचेंगे, अपने गृहनगर किस मुँह से जाएगा इत्यादि सोचते सोचते कितने घंटे बीत गए उसे पता ही न चला| कुछेक कमरों को छोड़कर लगभग सारा हॉस्टल अँधेरे के आगोश में जा चुका था| सुबह के तीन बज चुके थे| पास ही पटरियों से गुजर रही रात्रिकालीन सन्नाटे को तोड़ती हुई ट्रेन की कूक भी पियूष का ध्यान नहीं भंग कर सकी थी| नींद कोसों दूर थी| वह तो बस सोचे जा रहा था| माँ ने तो दिलासा दे दी है कि “हिम्मत नहीं हारना, सब ठीक हो जायेगा| परन्तु उनको कैसे बताएगा कि उसे अब निकाला भी जा सकता है| अपने गृहनगर लौटकर वह लोगों से क्या कहेगा? लोग तो यही कहेंगे कि पियूष इस संस्थान के लायक ही नहीं था| और हर बार वह हीन भावना से भर उठता| शायद मैं इस संस्थान के लिए उपयुक्त नहीं हूँ, वरना मेरे साथ ही ऐसा क्यों? उसे मात्र हताशा भरे दृश्य ही दिखाई दे रहे थे, जैसे वह अपने कमरे से निकल रहा है और सभी उसे ही घूर रहे हैं एक असफल व्यक्तित्व के रूप में| नहीं नहीं...... मैं इनसे नजरें नहीं मिला सकूंगा| मैं यहाँ रुकूंगा ही नहीं| वह कमरे से बाहर आ गया| लेकिन वह जायेगा कहाँ ? अब तो घर भी नहीं जा सकता, अब क्या करेगा? सुबह की हल्की ठण्ड में भी उसकी हथेलियों पर पसीना आ रहा था| अपने कॅरिअर से कहीं ज्यादा लोक-लाज का भय उसके मन मस्तिष्क पर ऐसा दबाव बना रहा था कि उसकी मनोदशा बिगड़ती चली जा रही थी| वह अवसाद के गहन अंधेरों में जा चुका था जहां उसे अब कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था| आखिरकार एक वीभत्स निर्णय के साथ वह रेल-पटरी की ओर बढ़ने लगा | अवसाद के जंगल में भटकते हुए वह रेल पटरियों के काफी नजदीक आ गया| अँधेरा उसके इस अवसाद पर मरहम का काम कर रहा था| क्योंकि दिन निकलने पर उस समाज का सामना होना था जिससे वह डर रहा था| वह ट्रेन का इंतज़ार करता हुआ पटरी के पास ही बैठ गया| यद्यपि जीवन-द्वंद लगातार चल रहा था किन्तु कायरता हर बार विजित हो जाती, और वह ट्रेन की प्रतीक्षा में और अधिक व्याकुल हो जाता|
अचानक परिदृश्य परिवर्तित हुआ| उसकी नजर गाय के एक बछड़े पर पडी जो कुछ ही दूरी पर पटरी से उठने का असफल प्रयास कर रहा था| प्रकृति-प्रदत्त कौतुहल अभी भी विद्यमान था| उसने पास जाकर देखा बछड़े का एक पैर काम नहीं कर रहा था | जीवन के द्वंद में हार चुके पियूष पर इस घटना का कुछ विशेष प्रभाव नहीं पड़ा| समय आगे चला और अब दूर से आ रही ट्रेन की कूक भी सुनायी देने लगी| अपनी विपरीत सोच के चलते कमजोर हो चुके पियूष का आत्मनियंत्रण लगभग खत्म हो चुका था| रात्रि के अन्धकार में अब धीरे धीरे प्रकाश कण भी मिलने लगे थे| अतः जल्दी से जल्दी वह इस अंधकार में हमेशा के लिए मिल जाना चाहता था|

तभी बछड़ा व्याकुल होकर रम्भाने लगा| सुबह के धुंधलके में दूर कहीं एक आकृति दिखाई देने लगी जो धूल के गुबार के साथ-साथ इसी ओर चली आ रही थी| इस आकृति के समीप आने पर दृश्य स्पष्ट होने लगा| यह एक गाय थी जो अपने बछड़े की करुण पुकार सुनकर पूरी शक्ति के साथ दौड़ती आ रही थी| गति के साथ तेज हो उठी उसकी साँसे नथुनों से फूंस के रूप में निकलकर जमीन से टकरा रही थी, जिसका प्रतिबिम्ब धूल के गुबार के रूप में उसकी भाव-विव्हलता को व्यक्त कर रहा था| इस दृश्य को देखकर पियूष विचलित हो गया| बरबस ही उसे अपना बचपन याद आ गया| “कैसे पहली रोटी की मांग करने पर माँ मना कर देती थी कि यह तो गाय के लिए है, और कितने प्यार से वह रोटी खिलाने के लिए गाय को पुकार लगाता था|” उसे दौड़ती आ रही उस गाय में अपनी माँ दिखाई देने लगी| “माँ कितनी व्याकुल हो उठेगी जब उसे ज्ञात  होगा कि उसका बेटा .......|” नहीं नहीं मैं क्या कर रहा हूँ? मैं लोक-लाज के चलते अपने माता–पिता, परिवार को इतना भीषण दर्द कैसे दे सकता हूँ? नहीं नहीं मैं समाज से लड़ सकता हूँ, मैं बहुत कुछ कर सकता हूँ, इस बछड़े को मैं बचा सकता हूँ| अवसाद के गहन अँधेरे में मानो प्रकाश की कोई किरण चमक उठी थी| ट्रेन नजदीक थी| वह बछड़े को बचाने के लिए दौड़ पड़ा| बछड़ा बच गया था, और गाय उसे लगातार चाट रही थी| पियूष की आँखें खुल चुकी थी| जीवन को सार्थक करने के लिए एक ही नहीं वरन अनेकों काम पड़े हुए हैं| वह जीवों के लिए काम कर सकता है, वह जीवन से हार मान चुके लोगों के लिए काम कर सकता है, वह समाज के हित में कार्य कर सकता है| उसके मन-मस्तिष्क में बड़े-बड़े नायकों के जीवन-चरित्र उभरने लगे जो विपरीत परिस्थितियों में रहते हुए, कई बार हार कर भी, किन्तु दृढ संकल्प एवं कठोर श्रम के द्वारा आखिरकार विजित हुए| पूर्व दिशा में सोने का गोला लालिमा बिखेरने लगा था | अन्धकार की परते एक-एक कर छंटती जा रही थी| गाय ने एक बार अपने बड़े-बड़े नयनो से पियूष को देखा, मानो धन्यवाद दे रही हो| गाय का इस तरह से निहारना उसे सुखद अहसास करा गया| "माँ मैं कायर नहीं..."- बड़बड़ाता हुआ वह हॉस्टल की ओर वापस चल दिया|
 
( लेखक आई आई टी कानपुर में पदार्थ विज्ञान कार्यक्रम के तकनीकी अधीक्षक पद पर कार्यरत हैं )

बुधवार, 6 नवंबर 2013

साहित्य और हँसी

हाँ! जब साहित्य मेरे पास आता है तो मैं बस उसे हँसाता हूँ ।
थका हारा विचारों का मारा 'वाद' से सना अलंकारो से बना इसके, उसके, सबके दर्द का बयान वेदना के बाद का निचोड़ा सा ज्ञान जब हर कोई नया कहने में लगा है मैं बात वही दोहराता हूँ हाँ! जब साहित्य मेरे पास आता है तो मैं बस उसे हँसाता हूँ ।
दुःख में सुख और सुख में सुख की बातें मिलन में प्रकृति और विछोह में बीती राते आम आदमी के लिए महंगाई का बखान या बाज़ार की कोई आम दुकान इस कला की दुनिया में मैं जोकर हूँ अपना किरदार निभाता हूँ हाँ! जब साहित्य मेरे पास आता है तो मैं बस उसे हँसाता हूँ |
- आदित्य राज सोमानी
(आदित्य जैव प्रौद्योगिकी में द्वितीय वर्ष के छात्र हैं )

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

असहज करती है 'शाहिद'


"मुझे नाइंसाफी दिखाकर ख़ुदा ने इन्साफ के लिए लड़ना सिखाया |... क्या फ़र्क पड़ता है - मरने वाला भी इंसान होता है मारने वाला भी इंसान होता है |"

in the name of God 
" in service of the truth "

ये फिल्म एक बार फिर उन प्रश्नों को गहराई से उभार कर सतह पर लाती है जिनके बारे में हमें लगता है कि हमने पर्याप्त समाधान ढूँढ लिए हैं| ज़हीर के मुक़दमे की सुनवाई के दौरान जज कहते हैं कि टाडा कानून राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जरुरी है तो शाहिद कई बार ये दोहराते हैं कि आप किसी भी आदमी को पकड़ कर जेल में डाल दीजिये और फिर उस पर दस साल मुकदमा चले और इसके बाद आप उसे अंत में 'नॉट गिल्टी' कह भी दें तो ये तो कोई इन्साफ नहीं हुआ और उसके बाद वो करे तो क्या करे ?

निर्देशक हंसल मेहता और कहानीकार समीर गौतम सिंह ने एक बेहद ईमानदार फिल्म बनायी है जिसे राजकुमार यादव के असाधारण अभिनय का पूरा साथ मिला है | ये राजकुमार का अभिनय ही है जो आपको तीन चार मौकों पर बेहद असहज कर देता है | दंगों में जलते हुए लोगों और मरने पे उतारू भीड़ को देखकर डरने के भाव हों या जेल में पिटाई के दौरान डरने के - दोनों के बीच का जो फ़र्क होना चाहिए था वो उतना ही उनके द्वारा दिखाया गया है | निश्चित रूप से ऐसे कई मौके हैं जहाँ पर निर्देशक के द्वारा उन्हें अभिनय की अपनी ही बनायी हुई सीमाएं तोड़ने का भरपूर मौका मिलता है |

कहानी सुनाने का तरीका वैसे तो कोई नया नहीं है और कहानी में प्रयोग की सम्भावना भी नकारी नहीं जा सकती लेकिन कहानी सुनाने में कोई ख़ास प्रयोग किये नहीं गए हैं| तकनीकी तौर पर देखा जाये तो बहुत अच्छी क्षमता का कैमरा नहीं होने के बाद भी लैंडस्केप बड़े ही खूबसूरत दर्शाए गए हैं | एक प्रयोग बेहद अंत में स्पष्ट दीखता है जब शाहिद की हत्या का दृश्य आना होता है तो वैसी परिस्थितियाँ बनते ही फटाफट फेड इन और आउट होते हैं और अंत में शाहिद को गोली मारने पर बंद होते हैं | ये इंगित करना बैटरी के डिस्चार्ज होने पर जलने बुझने वाली स्थिति से प्रेरित लगता है |

फिल्म के अन्य क़िरदार वैसे तो गौड़ ही हैं लेकिन फिर भी अच्छे अभिनेताओं के द्वारा निभाए जाने से वो भी अपनी सार्थकता पाने में सफल हुए हैं | रांझाना से एकदम अलग क़िरदार में जीशान ने छाप छोड़ी है और एक दृश्य में वो अपने अभिनय के दम पर हमारा ध्यान एक बिना बाप वाले परिवार में बड़े भाई के त्याग और छोटे भाई की मनमर्जी के प्रति रोष की और ले जाते हैं | पत्नी और पहले तलाकशुदा परेशान महिला - मरियम के इन दोनों ही रूपों के साथ प्रभलीन संधू का अभिनय न्याय करता है | तिग्मांशु जी और विपिन शर्मा जी तो कुछ कहे जाने से ऊपर हैं |  इस फिल्म के लिए विशेष तौर पर विपिन शर्मा का बेहद नैसर्गिक अभिनय हमें हँसाए बिना नहीं छोड़ता और देखा जाये तो इस बेहद संजीदा फिल्म में सिर्फ कोर्टरूम का वो अंश ही ऐसा है जो हमें हंसने का मौका देता है | देखा जाये तो इस लिहाज से भी ये निर्देशक की बड़ी सफलता है| बात करें बलजिंदर कौर की जिन्होंने एक निम्न-मध्यमवर्गीय विधवा मुसलमान महिला के क़िरदार को जान दी है| हर मौके पर उनके चेहरे के भाव बहुत सशक्त लगते हैं | शालिनी वत्स भी वकील के रूप को अच्छे से प्रस्तुत करती हैं | मुझे व्यक्तिगत रूप से एक इंसान निराश करता है फिल्म में और वो हैं - के के मेनन| उनके अभिनय पर प्रश्न नहीं किया जा सकता लेकिन निराशा उनके छोटे रोल को लेकर हुई| अपने सबसे पसंदीदा अभिनेताओं में से एक को बहुत थोड़ी देर के लिए देखना थोडा कष्ट देता है लेकिन उतनी ही देर में वो अपने डायलाग डेलिवरी से मोहित कर जाते हैं|

वैसे , सिर्फ इतना ही ये फिल्म नहीं है | फिल्म के अलावा भी ये फिल्म बहुत कुछ है | एक अपील है शाहिद आजमी को केंद्र में रखते हुए| एक बात लगभग अंत में आती है कि समाज, पुलिस और मीडिया किसी को भी बिना मुकदमा चले ही अपराधी मान लेते हैं लेकिन अब ये जिम्मेदारी न्यायालय की बनती है कि वो उनकी इस गलती को सुधारे और कठघरे में आदमी के साथ शाहिद आजमी को भी इन्साफ मिल सके| सीधे शब्दों में कहें तो ये फिल्म मानवाधिकार की उन दलीलों की ही गूँज है जो कभी शाहिद आज़मी ने खुद अदालतों में दी होंगी |

- निशांत


Shahid- official trailer

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

किरदार - नज़्म



लेखन एवं आवाज़ - निशांत सिंह
सम्पादन, निर्देशन एवं विशेष सहयोग - श्री ओम प्रकाश शर्मा जी 

मित्रों , किरदार एक कहानी-श्रृंखला है | खुद के अन्दर हम सभी न जाने कितने किरदार समेटे हुए हैं जो आपस में लुका छिपी खेलते रहते हैं | कभी हमारे ही भीतर का कोई किरदार हमें बुद्धिजीवी मानता हैं और फिर हमारे ही भीतर का कोई दूसरा किरदार कई विषयों को बौद्धिक चर्चा के दायरे में लाने से संकोच कर जाता है | विश्वास और तर्क की इन लड़ाइयों में हम अक्सर इस प्रश्न पर आकर अटक जाते हैं कि कौन-सा पक्ष उपयुक्त है | दार्शनिक प्रश्नों के समाधान खोजती ऐसी ही एक यात्रा है 'किरदार' | 

इन कहानियों के किरदार इन प्रश्नों में उलझते , उनकी लहरों में तैरते-उतराते अंत में सच को ढूंढते हुए वे अपने सामने आईना रखा हुआ पाते हैं | अब इसके आगे लेखक कुछ नहीं निर्णय करना चाहता -कि क्या जो कुछ आईने में दिख रहा है उसे सच कहा जाये या नहीं ! वो तो श्रोताओं और पाठकों की समझ को कम आँकना होगा |

उम्मीद है कि आप इस श्रृंखला को उत्साह से सुनेंगे और पसंद भी करेंगे और एक नए कहानीबाज को अपनी समीक्षाएं भी समय समय पर देते रहेंगे | जल्द ही आपके लिए प्रस्तुत करेंगे पहली कहानी, धन्यवाद !

सम्पादन, निर्देशन एवं विशेष सहयोग - श्री ओम प्रकाश शर्मा जी 
श्री ओम प्रकाश जी विविध भारती कानपुर में वरिष्ठ कार्यक्रम-प्रस्तोता है और पिछले कई वर्षों से आई आई टी कानपुर के रेडियो ९०.४ को अपनी सेवाओं से लाभान्वित करते रहे हैं |

धन्यवाद - श्रीमती वत्सला जी , श्री अमित त्रिपाठी जी , श्री देव जी एवं समस्त ९०.४ रेडियो टीम

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

चित्र-पटल


आईआईटी कानपुर के निदेशक डॉ इन्द्रनील मन्ना काव्यांजलि समारोह में श्रोताओं को संबोधित करते हुए


मीडिया के द्वारा हमारा उत्साह-वर्धन 


काव्यांजलि कार्यक्रम का आनंद लेते श्रोतागण 


काव्यांजलि के आकर्षण मशहूर शायर श्री अंसार कंबरी जी (बायें से प्रथम ) 




हमारी  आगामी प्रस्तुति रेडियो कहानी कार्यक्रम 'क़िरदार'



बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

आहुति

- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' 


मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?


कांटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?

मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूं तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?



मैं कब कहता हूँ विजय करूं मेरा ऊंचा प्रासाद बने ?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुँधली-सी याद बने ?

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?


मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?


वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !


मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आँधी सा और उमड़ता हूँ

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !


भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने |


मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

खिड़की और दरवाजे के दर्मियाँ



निशांत 


अबकी बरस की 
पूरनमासी वाली रात ,
हाँ, उसी सर्द रात को,
प्रेमचंद वाली पूस की रात से 
थोडा ज़्यादा सर्द रात को,
खिड़की और दरवाज़े के दरम्यान 
वक़्त तराशा था , जब बैठा था ।

खिड़की के उस पार दिखे थे 
दिन गिरते उठते बचपन के 
और गौर से देखा , पाया  
झूले पे अंगड़ाते सावन को  
एक अचानक आहट आई 
दरवाज़े पर मानो टूटा हो 
वक़्त का टुकड़ा अभी अभी 
मुड़कर पीछे देखा पाया 
घर की बिल्ली गिरा गयी थी 
गेंदे वाला मिट्टी का गमला 
इसी फेर में बिखरा गयी थी 
उन फूलो को फर्श पर जो कभी 
गमलो में अटके हुआ करते थे ,
टुकुर टुकुर देखा करते थे ।
निकली छोटी सी आह 
मानो रुक ही ना पाई हो 
कोशिश करके रुकते-रुकते भी ।
मानो छलक पड़ी हो 
कोशिश करके रिसते रिसते ही ।
वापिस खिड़की से जब झाँका 
नज़र गायब थी ,
नज़र ओझल थी ।
खिड़की और दरवाज़े के दरम्यान 
दूरी बहुत थी 
फ़ासले तमाम थे।
खालीपन पसरा बैठा था ,
खुद से मेरा संवाद रुका था।
तभी कहीं से आई हँसती 
बीच बीच में शोर मचाती 
लड़ लेतीं पहले आपस में 
अब देखो हैं रोती गाती ।
ये सखियाँ हैं उड़ी कहाँ से 
ये सखियाँ उड़ चली कहाँ तक 
ये सखियाँ हैं कोई फ़रिश्ते 
यहीं दरमियां मंतर पढ़ती 
यहीं दरमियां कलमे गातीं 
खिड़की से हैं आती-जाती 
दरवाज़े से जाती-आती 
सोंधा करते यही दर्मियाँ 
ये कानों में कहती जातीं -
गुजरा वक़्त खिड़कियों से दिखता है 
गुजरे वक़्त के दरवाज़े नहीं खुलते ।
खिड़की और दरवाज़े के दर्मियाँ 
गुजरा वक़्त तराशा था, जब बैठा था।

( निशांत जन-अभियांत्रिकी में तृतीय वर्ष के छात्र हैं )

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

सूखे पत्ते और मिट्टी

- ओम प्रकाश शर्मा

आम के हरे दरख़्त के तले, 
चंद सूखे पत्ते पड़े हैं सिमटे हुए, 
रगें... 
ढीली पड़ चुकी हैं इनकी, 
लहू... 
सूख चूका है इनका|
लफ्ज़ लरजते थे 
इन पर कभी, 
अब मद्धम पड़ चुके हैं| 

पाँव टकरा जाता है
इनसे किसी का तो 
करवट लेते चीं-चूं सा 
कुछ बोल देते हैं. 
जुम्बिश कम ही है इनमें 
कोई हवा का झोंका आये 
उड़ा कर ले जाये इन्हें, 
दबा दे मिटटी की दरारों में, 
मिटेंगे, गलेंगे, उसी मिटटी में कहीं, 
फिर उगेंगे किसी दरख़्त की शाख पर, 
फिर उकेर देगा वक़्त, 
लफ़्ज़ों के, दस्तानों के, 
लरजते मोती इन पर |

( लेखक ऑल इंडिया रेडियो, कानपुर में वरिष्ठ कार्यक्रम-प्रस्तोता हैं )

सोमवार, 30 सितंबर 2013

उम्मीद पर दुनिया कायम है

- विनय कुमार शुक्ल

दोस्तों अक्सर आपलोगों ने सुना होगा की उम्मीद पर दुनिया कायम रहती है  सच भी है बिल्कुल, पर क्या है ये उम्मीद? कहाँ से आती है ये उम्मीद ? उम्मीद वो होती है जो वर्तमान में किये गए कर्म की शक्ति है। भविष्य के किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वर्तमान में किये जा रहे कर्म की शक्ति या उससे प्राप्त उर्जा को उम्मीद कहते हैं। जब हम अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कठिन परिश्रम करते हैं तो हमारे अंदर एक सकारात्मक उर्जा का संचार होता है और वो हमारे विश्वास को बढाता है। लक्ष्य को प्राप्त कर लेने के प्रति हमारी सकारात्मक सोच को उम्मीद कहते हैं पर ये उम्मीद विश्वास से थोडा भिन्न होती है आप लोग अब पूँछ सकते हैं की ये कैसे भिन्न है विश्वास से ? जैसा की मैंने कहा की ये उम्मीद हमारे कर्मो से प्राप्त सकारात्मक उर्जा है , परन्तु विश्वास के कई प्रकार होते हैं -
. सच्चा विश्वास . अति विश्वास . अल्प विश्वास
. सच्चा विश्वास वो होता हैं जो इंसान के कर्मो और छमताओ के अनुरूप हो। यदि मनुष्य अपनी योग्यता तथा  शक्ति से भली भाँती परचित हैं और वो अपनी कमियों से भी अवगत है तभी उसके अंदर सच्चा विश्वास सकता है अन्यथा नहीं।
. अति विश्वास वो होता है जब इंसान अपनी छमताओ और कर्मो से बढ़ चढ़ कर सोचने लगता है। ऐसे इंसान करते कुछ ख़ास नहीं परन्तु उनकी सोच और विश्वास इतना अधिक होता है की जैसे उनके अनुसार पृथ्वी तो उन्ही के भरोसे चलती है।
. अल्प विश्वास हमेशा निराशावादी लोगों में आता है , कई बार मनुष्य कर्म तो करता है परन्तु उसकी सोच निराशावादी होती है, वो हमेशा ये सोचता है की ये काम वो नहीं कर सकता , वो काम उसके हाथ में नहीं। कई बार लोग भाग्य पर दोषारोपण कर देते हैं , परन्तु ऐसा अल्प विश्वास इंसान को कमजोरी के सिवा कुछ नहीं देता
वस्तुतः मनुष्य में अपार शक्ति होती है, वो बड़े से बड़ा काम कर सकता है। परन्तु इसके लिए उसे खुद का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। आधुनिक इंसान अपना अधिकांश समय इन्टरनेट पर बिताता है , वो कभी फेसबुक पर दोस्ती तो कभी स्काइप पर प्यार करता है। ऐसे में वो अपनी अपार शक्तियों को भूलता जा रहा है , ऐसे में कौन सी "उम्मीद पर दुनिया कायम है ? " आधुनिक इन्टरनेट क्रांति के अनेको लाभ है परन्तु मनुष्य को उसके दुस्परिनामो से भी परचित होना आवश्यक है। इंसान के आगे बढ़ने में दोस्तों का महत्व पूर्ण  स्थान है। इसलिए अच्छे दोस्त होना भी जरुरी है , परन्तु वो इन्टरनेट की काल्पनिक दुनिया में ना ही हो तो अच्छा इसलिए मनुष्य को चाहिए की वो उम्मीद के सच्चे स्वरुप को समझकर उसके अनुरूप कार्य करे
यदि इंसान को अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना है तो उसे अपने अन्दर सकारात्मक उर्जा लानी चाहिए और ये उर्जा हमारे नित्य कर्मो पर आधारित है , आप सभी लोग निम्नलिखित पंग्तियो से भली भाँती परचित है -
                   कर्मणयेवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
                   मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।

इसलिए दोस्तों पहचानो खुद को , काम करो कुछ ऐसे की दुनिया कायल हो जाये तुम्हारी और लोग ढूंढे तुम्हे गूगल सर्च से , फिर हम सभी कह सकते हैं की उम्मीद पर दुनिया कायम रहती है धन्यवाद्


( लेखक भौतिक विज्ञान विभाग में शोध छात्र हैं )