सोमवार, 30 सितंबर 2013

बेशक्ल भटकता ख़्वाब

 -नितिन धाकड़
                                                                  
नामुमकिन सा था
उन राहों से मुकर जाना
जिन पर तुम्हारे निशाँ थे,
और उस ढलती शाम को
यूं  सह जाना अकेले
भी कहाँ आसाँ था ?

तुम्हारे आने से पहले भी आता था कोई
मेरे ख़्वाबों की गुमनाम दुनिया में,
मेरी कल्पनाओं के गाड़े रंगों में,
एक धुंधला सा चेहरा,
दबे पाऊँ चला आता
मरहम लगाने हर ज़ख्म पर |
हर सवेर अब तो एक ख्वाइश थी,
वो सूरत, वो आकृति,
वो तस्वीर साफ़ हो जाए,
मेरे भटकते ख्वाब को काश
कोई शक्ल मिल जाए |

फिर एक भौर तले तुम्हें देखा,
उस ऊँचे झरोखे से संसार ताकते |
तुम्हारा चेहरा मानों आईना था,
या शायद प्रतिबिम्ब,   
मेरे पलकों में दबे उस चेहरे का |
और अब तो हर कीमत अदा कर  
तुम्हें पा लेने की
मेरी अज्ञात ख्वाइशों को
यों कैद रख लेना मन में ही,
आसाँ तो नहीं था |

हर सवेरा अब तो
कशमकश के साथ दस्तक देता
और हर रात ख्वाबों में तुम,
सरगम अब तो छिड़ी थी फिज़ा में,
पत्तों की सरसराहट में,
लहरों के टकराव में,
मासूम की किलकारी में
और उस बेबात सन्नाटे में भी,
अब तो तराने सजते थे |
थिरकते मेरे इन कदमों को
यों थाम लेना तेरी और बढनें से भी
तो कहाँ आसाँ था ?

वक़्त की रफ़्तार अब मेरी थी,
और वो वक़्त ही तो था जिसके संग
तुम अब निगाहों के सामने थी
पर कहाँ तुम्हारा अस्तित्व
हकीक़त लग रहा था,
चेहरा तो हूबहू था
पर कहाँ हाथों में जख्मों का मर्ज़ था,
तुम छलावा थी मेरी आभासी दुनिया का
तुम्हें यों सच मान
फिर से झुठला देना भी तो
कहाँ आसाँ था ?

तुम्हें ढूंढ लेने की कोशिशों में
मैंने खुद खो दिया
अब इन जाने पहचाने अनजाने चेहरों
में खोज लेना मेरी शक्ल का ‘मैं’
आसाँ तो नहीं था |
अब तो एक अनसुलझी पहेली,
नींद में निकली एक चीख,
बेढंग फैली लाल स्याही के नीचे
दबी एक कहानी,
खुद से ही अजनबी मैं और
फिर एक बेशक्ल भटकता ख्वाब
आँखें मूँद इसे फिर पलकों में सजा लेना

इतना आसाँ तो नहीं था |

( लेखक आई आई टी रुड़की में द्वितीय वर्ष के छात्र हैं )

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