शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

परसाई और ज्यादा ज़रूरी हो गए हैं समय के साथ



इस लेख में मैं और कुछ नहीं लिखना चाहूँगा सिवाय कि परसाई को पढ़ने और उनके लिखे हुए से जुड़ पाने के अपने अनुभव। हो सकता है कि समय रहे तो इसका भाग दो, तीन वगैरह भी लिखा जाए। मैं ये तो दावा नहीं करूँगा कि मैंने परसाई को पर्याप्त पढ़ लिया है लेकिन जितना पढ़ा है वो भी बहुत सब्स्टेंशिअल है। ये पिछले लेखों की तरह कन्वेंशनल टाइप श्रद्धांजलि लेख बिल्कुल नहीं होना चाहिए- वरना सिद्ध हो जाएगा कि मैंने परसाई को थोड़ा भी नहीं समझा।

शुरुआत में साहित्य पढ़ने वाले बहुत से लोगों की तरह मुझे भी हास्य और व्यंग्य के बीच की सीमा का अंदाज़ा नहीं था। बाद में पता चला कि हास्य सिर्फ़ हँसी भर दे सकता है; व्यंग्य हँसी भी ला सकता है लेकिन हँसी न तो उसका महत्वपूर्ण अंग है और न ही उसका एकमात्र लक्ष्य। और ये बात एकदम स्पष्ट हुई परसाई के व्यंग्य-निबंध पढ़कर।

पहली रचना थी 'वैष्णव की फिसलन'।
वैष्णव करोड़पति है। जायदाद लगी है। भगवान सूदखोरी करते हैं। ब्याज़ से क़र्ज़ देते हैं। वैष्णव दो घण्टे भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, फिर गादी-तकियेवाली बैठक में आकर धर्म को धंधे से जोड़ते हैं। धर्म धंधे से जुड़ जाए, इसी को ‘योग’ कहते हैं।
समाज में उपस्थित छिछले स्तर की धार्मिक प्रवृत्तियों पर कैसा तीखा उपहास है। हमारा स्वार्थ ही हमारा आत्म भी है और हमारा भगवान भी। स्वार्थों के नाते हम किसी भी तरह अपने किए को जस्टिफाई कर सकते हैं। धार्मिक स्वाँग हमें ये भ्रम दिलाये रहता है कि जो भी है सब कुछ भगवान की मर्जी, हमारा उस पर नियंत्रण ही कहाँ !
प्रभु, आपके ही आशीर्वाद से मेरे पास इतना सारा दो नंबर का धन इकठ्ठा हो गया है। अब मैं इसका क्या करूँ? आप ही रास्ता बताइए। मैं इसका क्या करूँ?
खुद को धंधे की आवश्यकता के हिसाब से एडजस्ट कर लेना स्वाभाविक है लेकिन धर्म उसे कैसे रोचक बना रहा है देखिये-
दूसरे दिन वैष्णव साष्टांग विष्णु के सामने लेट गया। 
वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज़ आई- मूर्ख, गांधीजी से बड़ा वैष्णव इस युग में कौन हुआ है? गाँधी का भजन है- ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिये, जे पीर पराई जाणे रे।’ तू इन होटलों में रहनेवालों की पीर क्यों नहीं जानता? उन्हें इच्छानुसार खाना नहीं मिलता। इनकी पीर तू समझ और उस पीर को दूर कर।
वैष्णव समझ गया।उसने जल्दी ही गोश्त, मुर्गा, मछली का इंतज़ाम करवा दिया।
 इस तरह पहले गोश्त फिर उसको पचाने की दवा यानी शराब और फिर ज़िंदा गोश्त यानी कैबरे का नंगा नाच भी बिज़नेस ऑन-डिमांड की तर्ज पर शुरू हो जाता है। और फिर-
कृपानिधान ! ग्राहक लोग नारी माँगते हैं – पाप की खान। मैं तो इस पाप की खान से जहाँ तक बनता है, दूर रहता हूँ। अब मैं क्या करूँ?
वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज़ आई– मूर्ख, यह तो प्रकृति और पुरुष का संयोग है। इसमें क्या पाप और क्या पुण्य? चलने दे।
परसाई के व्यंग्य निबंधों का उपसंहार पक्ष सबसे तीक्ष्ण होता है। ये उपसंहार देखिये-
अब वैष्णव का होटल खूब चलने लगा। शराब, गोश्त, कैबरे और औरत। वैष्णव धर्म बराबर निभा रहा है। इधर यह भी चल रहा है।
वैष्णव ने धर्म को धंधे से खूब जोड़ा है।
परसाई ने अपने समकालीन राजनीतिक सामाजिक परिवेश पर भी उतने ही करारे व्यंग्य किए हैं जबकि आम तौर पर लिखने वाले अपने समकालीन की सीधी आलोचना से बचते रहे हैं और व्यंग्य सीधे न होकर इनडाइरेक्ट बात रखते हैं। परसाई सीधे भी कहते हैं और तीखा भी कहते हैं।
संघ का विज्ञानं अलग है जैसे उसका इतिहास अलग है। डॉक्टर और वैज्ञानिक खून के टाइप बताते है। मगर संघ मानता है - इन टाइप्स के अलावा एक टाइप "हिन्दू" खून भी होता है।
संघवाले मानते है कि हिन्दू पूर्वजो ने अंतरिक्ष यान बनाया था। अचरज इसी बात का है कि अंतरिक्ष यान बनाने वालो ने साइकिल क्यों न बना ली।
या फिर ये -
मेरे भाषण का विषय था- आजादी के पच्चीस वर्ष। सामने लडकियां बैठी थीं, जिनकी शादी बिना दहेज़ के नहीं होने वाली थी। बैल की तरह मार्केट में उनके लिए पति खरीदना ही होगा। स्त्री के लिए अब भी पत्नी के पद पर नौकरी करना सबसे सुरक्षित जीविका है।…
और लड़के बैठे थे, जिन्हें डिग्री लेने के बाद सिर्फ़ सिनेमाघर पर पत्थर फेंकने का काम मिलने वाला है।… 
महात्मा गाँधी मार्ग पर ठग बैठते हैं। रवीन्द्र मार्ग पर बूचड़खाने खुले हैं| परीक्षा में कोई बैठता है, और पास दूसरा हो जाता है। सहकारी दूकान के सामने कतार लगी है और पीछें के दरवाजे से चीजें कालाबाजार में जा रही हैं। हम किसी को भ्रष्टाचारी घोषित करते हैं और वो सदाचार-अधिकारी बना दिया जाता है।…
आज़ादी के पच्चीस वर्षों का यही हिसाब है।

लेकिन उनकी इस शैली से अलग एक निबंध है 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे'। उसका ये अंश पढ़िए -
राजनैतिक पार्टियां  प्रचार कार्य में लगी हैं ।
पार्टी नं. १ कहती है- हम जनता को वचन देते हैं की हम सत्ता में आते ही खेती बंद करा देंगे । अन्न ही नहीं पैदा होगा तो जनता भूखी रहेगी ही।
जनता कहती है- नहीं, अन्न तो खूब पैदा होना चाहिए। फिर भी हमें भूखा रहने देना चाहिए। अन्न ही नहीं पैदा होगा तो हमारा राष्ट्रीय गौरव नष्ट हो जाएगा।
 पार्टी नं. २ वादा करती है- हम अन्न तो पैदा होने देंगे, पर उसे इतना महँगा कर देंगे कि लोग खा नहीं सकेंगे। 
 जनता कहती है- ये खेल हम बहुत देख चुके। हम नए ढंग से भूखे मरना चाहते हैं।
 पार्टी नं. ३ मंच पर आती है। कहती है- हम अन्न की पैदावार खूब बढ़ाएँगे, पर साथ ही चूहों का भी सघन उत्पादन होगा। जनता को अन्न-उत्पादन का गौरव भी मिलेगा और भूखा मरने का सुख भी। 
 जनता कहती है- ये पार्टी हमें पसंद है। इसी की सरकार बनेगी। हम बाहुल्य में भूखा मरना चाहते हैं। …
 सरकार बन जाती है। फसल चूहे खाते जाते हैं और आदमी ख़ुशी ख़ुशी मरते जाते है। एक साल अकाल पड़ जाता है। चूहे सरकार को घेरते हैं ('जनता नहीं') कि उनकी ओवरईटिंग की आदत पड़ गयी है और उनका पेट भरा जाए।
चूहे बेताब हैं। वे भूख से तिलमिला रहे हैं। … चूहे दाँत किटकिटाकर भिड़ जाते हैं।
पहले चूहे संविधान कुतरकर खा जाते हैं। फिर चूहे सरकार खा जाते हैं, संसद खा जाते हैं, न्यायपालिका को खा जाते हैं।
मेरी नींद खुल जाती है। संवैधानिक बहस करने वाले मुझे याद आते हैं। फिर याद आता है, रिक्शेवाला।
क्या अर्थ है, इस सपने का ? पता नहीं ।
लेकिन हम जानते हैं कि इसके क्या मतलब हैं और परसाई के समय से आगे आकर ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर हम ये भी जान पा रहे हैं कि इन चूहों को कौन पाल रहा है और ये भी कि इंसान अब भी जाग नहीं रहा। वो बस ख़ुशी से मर रहा है- किसी भुलावे में, किसी राजनैतिक छलावे में। और इसी वज़ह परसाई और ज्यादा आवश्यक होते जा रहे हैं समय के साथ। …



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