- हिमांशु कुमार
व्यर्थ मुझे है समझाना
धुन मेरी है मिट जाना
चल पड़ा सनातन पथ पर मैं
फिर तुम पुनः पुनः मंजिल बनकर
मेरे पथ में क्यों आ जाते हो ?
है दग्ध ह्रदय, मृदुकाया
दिनकर भी ताप बढाता है
सूखापन व्याकुल प्राणों का
मरीचिका बन भरमाता है
तब पुनः पुनः बदल बन तुम
नभ में क्यों छा जाते हो ?
सूखे नयनों के कोरों से
बहते सपने बन सजल बिन्दु
अगणित अगणित सपने मिल
भर सकते नित कोटि सिन्धु
कोरे नयनों में सुन्दर सपने दे तुम
मुझको क्यों छल जाते हो ?
है पथ दुर्गम, अंधकार भरा
दिक् का मुझको कुछ ज्ञान नहीं
आधार खोजता जीवन का मैं
भ्रमित मुझे कुछ भान नहीं
तब मुझको आलम्बन देने
तुम क्यों खुद दीपक बन जाते हो ?
व्यर्थ मुझे है समझाना
धुन मेरी है मिट जाना
चल पड़ा सनातन पथ पर मैं
फिर तुम पुनः पुनः मंजिल बनकर
मेरे पथ में क्यों आ जाते हो ?
है दग्ध ह्रदय, मृदुकाया
दिनकर भी ताप बढाता है
सूखापन व्याकुल प्राणों का
मरीचिका बन भरमाता है
तब पुनः पुनः बदल बन तुम
नभ में क्यों छा जाते हो ?
सूखे नयनों के कोरों से
बहते सपने बन सजल बिन्दु
अगणित अगणित सपने मिल
भर सकते नित कोटि सिन्धु
कोरे नयनों में सुन्दर सपने दे तुम
मुझको क्यों छल जाते हो ?
है पथ दुर्गम, अंधकार भरा
दिक् का मुझको कुछ ज्ञान नहीं
आधार खोजता जीवन का मैं
भ्रमित मुझे कुछ भान नहीं
तब मुझको आलम्बन देने
तुम क्यों खुद दीपक बन जाते हो ?
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