- हिमांशु पाण्डेय 'हिमकर'
अब “वसुधैव कुटुम्बकम” केवल
एक शब्द नहीं लगता
उसे लगे न लगे,
मुझे तो वो अपना-सा ही लगता
क्षुधा की आग में जलता
ये समाज छोटा सा लगता है
अब “वसुधैव कुटुम्बकम” केवल
एक शब्द नहीं लगता
उसे लगे न लगे,
मुझे तो वो अपना-सा ही लगता
क्षुधा की आग में जलता
ये समाज छोटा सा लगता है
वैभव के पर्याय बने
राजमहलो से
तो अपना चूल्हा ही अच्छा लगता है
इस चांदनी रात में उस
पपीहे से दो बात करता हूँ
उसकी प्यासी तपन को
खुद में आत्मसात करता हूँ
और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ
और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ
तो अपना चूल्हा ही अच्छा लगता है
इस चांदनी रात में उस
पपीहे से दो बात करता हूँ
उसकी प्यासी तपन को
खुद में आत्मसात करता हूँ
और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ
और उस शाम मैं कुछ गीत लिखता हूँ
उस सिक्के के दो
पहलुओं के परे
चंद चश्मे आज भी आते है.
चंद चश्मे आज भी आते है.
जो दिन भर खून बहाते,
वेश्या के कोठों पे वो हिंदू मुस्लिम साथ आते है
वेश्या के कोठों पे वो हिंदू मुस्लिम साथ आते है
तब मुझे बांटने की ये
इंसानी फितरत बहुत ओछी लगती है
इंसानी फितरत बहुत ओछी लगती है
उस टूटे छप्पर में वो
मासूम आँखें बड़ी सच्ची लगती है
मासूम आँखें बड़ी सच्ची लगती है
ये देख मैं मन ही मन
कुछ अंतर्द्वंद बोता हूँ
कुछ अंतर्द्वंद बोता हूँ
कुछ कहता हूँ कुछ
सुनता हूँ
और उस शाम मैं कुछ गीत
लिखता हूँ
और उस शाम मैं कुछ गीत
लिखता हूँ |
मेरा मन भी उन सांवली
शामों से कुछ बात करता है
शामों से कुछ बात करता है
गुजरी हुई रातों और
उस भूरी चादर के पार देखता है
उस भूरी चादर के पार देखता है
उस बंजर जमीं पर घास
के
कपोलों की आस करता हूँ
कपोलों की आस करता हूँ
और उस शाम मैं कुछ गीत
लिखता हूँ
और उस शाम मैं कुछ गीत
लिखता हूँ |
ढलते हुये सूरज की उन
परछाईंओं में,
नयी सुबह का आगाज़ ढूँढता हूँ
नयी सुबह का आगाज़ ढूँढता हूँ
नींड पर लौटते परिंदों
में,
प्रभात की किरणों सा कलरव देखता हूँ
प्रभात की किरणों सा कलरव देखता हूँ
तब मुझे खुद का अहं
कितना मिथ्या लगता है
कितना मिथ्या लगता है
इन छोटी खुशियों में
ही
सारा जग मानो सिमटा लगता है
सारा जग मानो सिमटा लगता है
मन ही मन कुछ राग
गुनगुनाता हूँ
और उस शाम मैं कुछ गीत
लिखता हूँ
और उस शाम मैं कुछ गीत
लिखता हूँ |
स्वार्थ की इन काली
आँधियों में
बिन पालों की इक नाव दिखती है
बिन पालों की इक नाव दिखती है
मेरुप्रभा सी रोशन उस
पर,
इन प्रतिबिम्बो की इक छाप दिखती है
इन प्रतिबिम्बो की इक छाप दिखती है
सतरंगी सी उसकी बातों
में
मुझे न छलावा लगता है
मुझे न छलावा लगता है
वो कहे,ना कहे,
ये छितिज सा भुलावा लगता है
ये छितिज सा भुलावा लगता है
चंद कदम मैं भी उसके
साथ चलता हूँ,
गिरता हूँ फिर उठता
हूँ,
और उस शाम मैं कुछ गीत
लिखता हूँ
और उस शाम मैं कुछ गीत
लिखता हूँ |
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