शनिवार, 27 सितंबर 2014

साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज


आज जबकि भगत सिंह को हर राजनीतिक दल- चाहे वो वामपंथी हो या दक्षिणपंथी- एक आइकॉन के रूप में अपना पोस्टर बॉय बना रहा है तब हमारे सामने ये प्रश्न आता है कि ऐसा क्या है एक क्रांतिकारी युवा शहीद के विचारों में जिससे वे समय के साथ और महत्त्वपूर्ण होते जा रहे हैं? उनके नारे और उनके गीत परस्पर विरोधाभासी मंचों से चिल्लाये और गाये जाते रहे हैं। और इसका मतलब यही है कि उन्हें समझा अभी भी नहीं जा रहा है। जैसे कि पुलिस चौकी में लगी उनकी तस्वीरें भी लगभग उसी तरह के विरोधाभास के तत्त्व हैं। जिस ढर्रे की पुलिस और प्रशासन से उनका प्रतिरोध रहा, वो ढर्रा अभी भी कायम है, उन्हीं की तस्वीरों के सामने।

ये प्रस्तुत लेख जून, 1928 के ‘किरती’ में छपा। यह लेख साम्प्रदायिकता की समस्या पर शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों का सार है।

भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है।
यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।
अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्रा बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है।
बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती। इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए।
लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों मंे लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी।
जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है। अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए। अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं। जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी। इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे। लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी।
इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों मंे एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।
यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं। उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है। भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं।
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।
इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं।
यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।
हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे।

आभार : यह फाइल आरोही, ए-2/128, सैक्टर-11, रोहिणी, नई दिल्ली — 110085 द्वारा प्रकाशित संकलन ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ (सम्पादक : राजेश उपाध्याय एवं मुकेश मानस) के मूल फाइल से ली गयी है।

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

गँजहों के गाँव में शिक्षक दिवस


(चित्र स्टॉक पिक्चर्स से साभार)

श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' से एक अंश जहां शिवपालगंज के छंगामल इंटर कॉलेज और वहाँ के गुरुजनों का परिचय कराया जा रहा है -

दो बड़े और छोटे कमरों का एक डाकबँगला था जिसे डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने छोड़ दिया था। उसके तीन ओर कच्ची दीवारों पर छ्प्पर डालकर कुछ अस्तबल बनाये गये थे। अस्तबलों से कुछ दूरी पर पक्की ईंटों की दीवार पर टिन डालकर एक दुकान-सी खोली गयी थी। एक ओर रेलवे-फाटक के पास पायी जाने वाली एक कमरे की गुमटी थी। दूसरी ओर एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे एक कब्र-जैसा चबूतरा था। अस्तबलों के पास एक नये ढंग की इमारत बनी थी जिस पर लिखा था, 'सामुदायिक मिलन-केन्द्र , शिवपालगंज।' इस सबके पिछवाडे़ तीन-चार एकड़ का ऊसर पड़ा था जिसे तोड़कर उसमें चरी बोयी गयी थी। चरी कहीं-कहीं सचमुच ही उग आयी थी।
इन्हीं सब इमारतों के मिले-जुले रुप को छंगामल विद्यालय इण्टरमीजिएट कालिज, शिवपालगंज कहा जाता था। यहाँ से इण्टरमीजिएट पास करने वाले लड़के सिर्फ़ इमारत के आधार पर कह सकते थे कि हम शांतिनिकेतन से भी आगे हैं; हम असली भारतीय विद्यार्थी हैं;हम नहीं जानते कि बिजली क्या है, नल का पानी क्या है; पक्का फ़र्श किसको कहते हैं ; सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है। हमने विलायती तालीम तक देशी परम्परा में पायी है और इसीलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं! हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है , बंद कमरे में ऊपर चढ़ जाता है। 

छंगामल कभी ज़िला-बोर्ड के चेयरमैन थे। एक फर्जी प्रस्ताव लिखवाकर उन्होंने बोर्ड के डाकबँगले को कालेज इस कॉलिज़ की प्रबन्ध-समिति के नाम उस समय लिख दिया था जब कॉलिज के पास प्रबन्ध-समिति को छोड़कर कुछ नहीं था। लिखने की शर्त के अनुसार कॉलिज का नाम छंगामल विद्यालय पड़ गया था।
विद्यालय के एक-एक टुकड़े का अलग-अलग इतिहास था। सामुदायिक मिलन -केन्द्र गाँव-सभा के नाम पर लिये गये सरकारी पैसे से बनवाया गया था। पर उसमें प्रिंसिपल का दफ्तर था और कक्षा ग्यारह और बारह की पढ़ाई होती थी। अस्तबल -जैसी इमारतें श्रमदान से बनी थीं। टिन -शेड किसी फ़ौजी छावनी के भग्नावशेषों को रातोंरात हटाकर खड़ा किया गया था। जुता हुआ ऊसर कृषि-विज्ञान की पढ़ाई के काम आता था। उसमें जगह-जगह उगी हुई ज्वार प्रिंसिपल की भैंस के काम आती थी। देश में इंजीनियरों और डॉक्टरों की कमी है। कारण यह है कि इस देश के निवासी परम्परा से कवि हैं। चीज़ को समझने के पहले वे उस पर मुग्ध होकर कविता कहते हैं। भाखड़ा-नंगल बाँध को देखकर वे कहते हैं, "अहा! अपना चमत्कार दिखाने के लिए, देखो, प्रभु ने फिर से भारत-भूमि को ही चुना।" ऑपरेशन -टेबल पर पड़ी हुई युवती को देखकर वे मतिराम-बिहारी की कविताएँ दुहराने लग सकते हैं। 

भावना के इस तूफ़ान के बावजूद, और इसी तरह की दूसरी अड़चनों के बावजूद, इस देश को इंजीनियर पैदा करने हैं, शाक्टर बनाने हैं। इंजीनियर और डाक्टर तो असल में वे तब होंगे जब वे अमरीका या इंगलैण्ड जायेंगे , पर कुछ शुरुआती काम-टेक-ऑफ़ स्टेजवाला -यहाँ भी होना है। वह काम भी छंगामल विद्यालय इण्टर कॉलिज कर रहा था। 

साइंस का क्लास लगा था। नवाँ दर्जा। मास्टर मोतीराम, जो एक अरह बी.एस-सी . पास थे, लड़कों को आपेक्षिक घनत्व पढ़ा रहे थे। बाहर उस छोटे-से गाँव में छोटेपन की, बतौर अनुप्रास , छटा छायी थी। सड़क पर ईख से भरी बैलगाड़ियाँ शकर मिल की ओर जा रही थीं। कुछ मरियल लड़के पीछे से ईख खींच-खींचकर भाग रहे थे। आगे बैठा हुआ गाड़ीवान खींच-खींचकर गालियाँ दे रहा था। गालियों का मौलिक महत्व आवाज़ की ऊँचाई में है, इसीलिए गालियाँ और जवाबी गालियाँ एक- दूसरे को ऊँचाई पर काट रही थीं। लड़के नाटक का मज़ा ले रहे थे, साइंस पढ़ रहे थे। 

एक लड़के ने कहा , "मास्टर साहब, आपेक्षिक घनत्व किसे कहते हैं ?" 

वे बोले, "आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी।"

एक दूसरे लड़के ने कहा, "अब आप, देखिए , साइंस नहीं अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं।"

वे बोले, "साइंस साला अंग्रेजी के बिना कैसे आ सकता है?"

लड़कों ने जवाब में हँसना शुरु कर दिया। हँसी का कारण हिन्दी -अंग्रेजी की बहस नहीं , 'साला' का मुहावरेदार प्रयोग था।

वे बोले, "यह हँसी की बात नहीं है। "

लड़कों को यक़ीन न हुआ। वे और ज़ोर से हँसे। इस पर मास्टर मोतीराम खुद उन्हीं के साथ हँसने लगे। लड़के चुप हो गये।

उन्होंने लड़कों को माफ कर दिया। बोले, "रिलेटिव डेंसिटी नहीं समझते हो तो आपेक्षिक घनत्व को यों-दूसरी तरकीब से समझो। आपेक्षिक माने किसी के मुक़ाबले का। मान लो, तुमने एक आटाचक्की खोल रखी है और तुम्हारे पड़ोस में तुम्हारे पड़ोसी ने दूसरी आटाचक्की खोल रखी है। तुम महीने में उससे पाँच सौ रुपया पैदा करते हो और तुम्हारा पड़ोसी चार सौ। तो तुम्हें उसके मुक़ाबले ज़्यादा फायदा हुआ। इसे साइंस की भाषा में कह सकते हैं कि तुम्हारा आपेक्षिक लाभ ज़्यादा है। समझ गये?" एक लड़का बोला, "समझ तो गया मास्टर साहब , पर पूरी बात शुरु से ही ग़लत है। आटाचक्की से इस गाँव में कोई भी पाँच सौ रुपया महीना नहीं पैदा कर सकता।" मास्टर मोतीराम ने मेज़ पर हाथ पटककर कहा , "क्यों नहीं कर सकता ! करनेवाला क्या नहीं कर सकता!" लड़का इस बात से और बात करने की कला से प्रभावित नहीं हुआ। बोला, "कुछ नहीं कर सकता। हमारे चाचा की चक्की धकापेल चलती है, पर मुश्किल से दो सौ रुपया महीना पैदा होता है।" "कौन है तुम्हारा चाचा?" मास्टर मोतीराम की आवाज़ जैसे पसीने से तर हो गयी। उन्होंने उस लड़के को ध्यान से देखते हुए पूछा, "तुम उस बेईमान मुन्नू के भतीजे तो नहीं हो?" लड़के ने अपने अभिमान को छिपाने की कोशिश नहीं की। लापरवाही से बोला, "और नहीं तो क्या?" 

बेईमान मुन्नू बड़े ही बाइज़्ज़त आदमी थे। अंग्रेज़ों में, जिनके गुलाबों में शायद ही कोई ख़ुशबू हो, एक कहावत है: गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो , वह वैसा ही ख़ुशबूदार बना रहेगा। वैसे ही उन्हें भी किसी भी नाम से क्यों न पुकारा जाये, बेईमान मुन्नू उसी तरह इत्मीनान से आटा-चक्की चलाते थे, पैसा कमाते थे, बाइज़्जत आदमी थे। वैसे बेईमान मुन्नू ने यह नाम ख़ुद नहीं कमाया था। यह उन्हें विरासत में मिला था। बचपन से उनके बापू उन्हें प्यार के मारे बेईमान कहते थे, माँ उन्हें प्यार के मारे मुन्नू कहती थी। पूरा गाँव अब उन्हें बेईमान मुन्नू कहता था। वे इस नाम को उसी सरलता से स्वीकार कर चुके थे, जैसे हमने जे.बी.कृपलानी के लिए आचार्यजी, जे.एल .नेहरु के लिए पण्डितजी या एम.के. गांधी के लिए महात्माजी बतौर नाम स्वीकार कर लिया है। 

मास्टर मोतीराम बेईमान मुन्नू के भतीजे को थोड़ी देर तक घूरते रहे। फिर उन्होंने साँस खींचकर कहा, "जाने दो!"
उन्होंने खुली हुई किताब पर निगाह गड़ा दी। जब उन्होंने निगाह उठायी तो देखा, लड़कों की निगाहें उनकी ओर पहले से ही उठी थीं। उन्होंने कहा, "क्या बात है?" 

एक लड़का बोला,"तो यही तय रहा कि आटा-चक्की से महीने में पाँच सौ रुपया नहीं पैदा किया जा सकता?"
"कौन कहता है?" मास्टर साहब बोले, "मैंने ख़ुद आटा-चक्की से सात-सात सौ रुपया तक एक महीने में खींचा है। पर बेईमान मुन्नू की वजह से सब चौपट होता जा रहा है।" 

बेईमान मुन्नू के भतीजे ने शालीनता से कहा , "इसका अफ़सोस ही क्या , मास्टर साहब! यह तो व्यापार है। कभी चित, कभी पट। कम्पटीशन में ऐसा ही होता है।" 

"ईमानदार और बेईमान का क्या कम्पटीशन? क्या बकते हो?" मास्टर मोतीराम ने डपटकर कहा। तब तक कॉलिज का चपरासी उनके सामने एक नोटिस लेकर खड़ा हो गया। नोटिस पढ़ते-पढ़ते उन्होंने कहा,
"जिसे देखो मुआइना करने को चला आ रहा है---पढ़ानेवाला अकेला, मुआइना करने वाले दस- दस!" 

एक लड़के ने कहा , "बड़ी खराब बात है !"

वे चौंककर क्लास की ओर देखने लगे। बोले , "यह कौन बोला?"

एक लड़का अपनी जगह से हाथ उठाकर बोला , "मैं मास्टर साहब! मैं पूछ रहा था कि आपेक्षिक घनत्व निकालने का क्या तरीका है !"

मास्टर मोतीराम ने कहा , "आपेक्षिक घनत्व निकालने के लिए उस चीज़ का वजन और आयतन यानी वॉल्यूम जानना चाहिए -उसके बाद आपेक्षिक घनत्व निकालने का तरीका जानना चाहिए। जहाँ तक तरीके की बात है, हर चीज के दो तरीके होते हैं। एक सही तरीका, एक गलत तरीका। सही तरीके का सही नतीजा निकलता है, ग़लत तरीके का गलत नतीजा। इसे एक उदाहरण देकर समझाना जरुरी है। मान लो तुमने एक आटा -चक्की लगायी। आटा-चक्की की बढ़िया नयी मशीन है, खूब चमाचम रखी है, जमकर ग्रीज लगायी गयी है। इंजन नया है, पट्टा नया है। सब कुछ है , पर बिजली नहीं है , तो क्या नतीजा निकलेगा ?" 

पहले बोलने वाले लड़के ने कहा, "तो डीजल इंजिन का इस्तेमाल करना पड़ेगा। मुन्नू चाचा ने किया था!"
मास्टर मोतीराम बोले, "यहाँ अकेले मुन्नू चाचा ही के पास अक्ल नहीं है। इस कस्बे में सबसे पहले डीजल इंजिन कौन लाया था ? जानता है कोई?" लड़को ने हाथ उठाकर कोरस में कहा, "आप ! आप लाये थे!" मास्टर साहब ने सन्तोष के साथ मुन्नू के भतीजे की ओर देखा और हिकारत से बोले ,"सुन लिया। बेईमान मुन्नू ने तो डीजल इंजिन मेरी देखा-देखी चलाया था। पर मेरी चक्की तो यह कॉलिज खुलने से पहले से चल रही थी। मेरी ही चक्की पर कॉलिज की इमारत के लिए हर आटा पिसवानेवाले से सेर-सेर भर आटे का दान लिया गया। मेरी ही चक्की में पिसकर वह आटा शहर में बिकने के लिए गया। मेरी ही चक्की पर कॉलिज की इमारत का नक्शा बना और मैनेजर काका ने कहा कि, 'मोती, कॉलिज में तुम रहोगे तो मास्टर ही, पर असली प्रिंसीपली तुम्हीं करोगे। ' सबकुछ तो मेरी चक्की पर हुआ और अब गाँव में चक्की है तो बेईमान मुन्नू की! मेरी चक्की कोई चीज ही न हुई !" 

लड़के इत्मीनान से सुनते रहे। यह बात वे पहले भी सुन चुके थे और किसी भी समय सुनने के लिए तैयार रहते थे। उन पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा। पर मुन्नू के भतीजे ने कहा ,"चीज तो मास्टर साहब आपकी भी बढ़िया है और मुन्नू चाचा की भी। पर आपकी चक्की पर धान कूटनेवाली मशीन ओवरहालिंग माँगती है। धान उसमें ज्यादा टूटता है।" 

मास्टर मोतीराम ने आपसी तरीके से कहा, "ऐसी बात नहीं है। मेरे-जैसी धान की मशीन तो पूरे इलाके में नहीं है। पर बेईमान मुन्नू कुटाई-पिसाई का रेट गिराता जा रहा है। इसीलिए लोग उधर ही मुँह मारता है।" 

"यह तो सभी जगह होता है," लड़के ने तर्क किया। 

"सभी जगह नहीं, हिन्दुस्तान ही में ऐसा होता है। हाँ--" उन्होंने कुछ सोचकर कहा, "तो रेट गिराकर अपना घाटा दूसरे लोग तो दूसरे लोग तो दूसरी तरह से- ग्राहकों का आटा चुराकर-पूरा कर लेते हैं। अब मास्टर मोतीराम जिस शख़्स का नाम है, वह सब कुछ कर सकता है, यही नहीं कर सकता।" 

एक लड़के ने कहा , "आपेक्षिक घनत्व निकालने का तरीका क्या निकला ?" 

वे जल्दी से बोले , "वही तो बता रहा था।" 

उनकी निगाह खिड़की के पास, सड़क पर ईख की गाड़ियों से तीन फीट ऊपर जाकर, उससे भी आगे क्षितिज पर अटक गयी। कुछ साल पहले के चिरन्तन भावाविष्ट पोजवाले कवियों की तरह वे कहते रहे, "मशीन तो पूरे इलाके में वह एक थी; लोहे की थी, पर शीशे-जैसी झलक दिखाती थी--?" अचानक उन्होंने दर्जे की ओर सीधे देखकर कहा , "तुमने क्या पूछा था ?" लड़के ने अपना सवाल दोहराया, पर उसके पहले ही उनका ध्यान दूसरी ओर चला गया था। लड़कों ने भी कान उठाकर सुना, बाहर ईख चुरानेवालों और ईख बचानेवालों की गालियों के ऊपर, चपरासी के ऊपर पड़नेवाली प्रिंसिपल की फटकार के ऊपर- म्यूजिक-क्लास से उठनेवाली हारमोनियम की म्याँव-म्याँव के ऊपर-अचानक ' भक-भक-भक' की आवाज होने लगी थी। मास्टर मोतीराम की चक्की चल रही थी। यह उसी की आवाज थी। यही असली आवाज थी। अन्न-वस्त्र की कमी की चीख पुकार , दंगे-फसाद के चीत्कार , इन सबके तर्क के ऊपर सच्चा नेता जैसे सिर्फ़ आत्मा की आवाज सुनता है, और कुछ नहीं सुन पाता ; वही मास्टर मोतीराम के साथ हुआ। उन्होंने और कुछ नहीं सुना। सिर्फ़ 'भक-भक-भक ' सुना। वे दर्जे से भागे।

लड़कों ने कहा, " क्या हुआ मास्टर साहब? अभी घण्टा नहीं बजा है।" 

वे बोले, " लगता है , मशीन ठीक हो गयी। देखें, कैसी चलती है। " 

वे दरवाजे तक गये , फिर अचानक वहीं से घूम पड़े। चेहरे पर दर्द-जैसा फैल गया था, जैसे किसी ने ज़ोर से चुटकी काटी हो। वे बोले, " किताब में पढ़ लेना। आपेक्षिक घनत्व का अध्याय जरुरी है।"

उन्होंने लार घूँटी। रुककर कहा , "इम्पार्टेंट है।" कहते ही उनका चेहरा फिर खिल गया।

भक ! भक! भक! कर्तव्य बाहर के जटिल कर्मक्षेत्र में उनका आह्वान कर रहा था। लड़कों और किताबों का मोह उन्हें रोक न सका। वे चले गये।

दिन के चार बजे प्रिंसिपल साहब अपने कमरे से बाहर निकले। दुबला-पतला जिस्म, उसके कुछ अंश ख़ाकी हाफ़ पैंट और कमीज़ से ढके थे। पुलिस सार्जेंटोंवाला बेंत बगल में दबा था। पैर में सैंडिल। कुल मिलाकर काफी चुस्त और चालाक दिखते हुए; और जितने थे, उससे ज़्यादा अपने को चुस्त और चालाक समझते हुए।
उनके पीछे-पीछे हमेशा की तरह, कॉलिज का क्लर्क चल रहा था। प्रिंसिपल साहब की उससे गहरी दोस्ती थी।
वे दोनों मास्टर मोतीराम के दर्जे के पास से निकले। दर्जा अस्तबलनुमा इमारत में लगा था। दूर ही से दिख गया कि उसमें कोई मास्टर नहीं है। एक लड़का नीचे से जाँघ तक फटा हुआ पायजामा पहने मास्टर की मेज पर बैठा रो रहा था। प्रिंसिपल को पास से गुजरता देख और ज़ोर से रोने लगा। उन्होंने पूछा , " क्या बात है? मास्टर साहब कहाँ गये हैं?"

वह लड़का अब खड़ा होकर रोने लगा। एक दूसरे लड़के ने कहा , " यह मास्टर मोतीराम का क्लास है।"
फिर प्रिंसिपल को बताने की जरुरत नहीं पड़ी कि मास्टर साहब कहाँ गये। क्लर्क ने कहा , "सिकण्डहैण्ड मशीन चौबीस घण्टे निगरानी माँगती है। कितनी बार मास्टर मोतीराम से कहा कि बेच दो इस आटाचक्की को, पर कुछ समझते ही नहीं हैं। मैं खुद एक बार डेढ़ हजार रुपया देने को तैयार था।"

प्रिंसिपल साहब ने क्लर्क से कहा, "छोड़ो इस बात को! उधर के दर्जे से मालवीय को बुला लाओ।"

क्लर्क ने एक लड़के से कहा, " जाओ, उधर के दर्जे से मालवीय को बुला लाओ। "

थोड़ी देर में एक भला-सा दिखनेवाला नौजवान आता हुआ नजर आया। प्रिंसिपल साहब ने उसे दूर से देखते ही चिल्लाकर कहा, "भाई मालवीय, यह क्लास भी देख लेना।"

मालवीय नजदीक आकर छप्पर का एक बाँस पकड़कर खड़ा हो गया और बोला, " एक ही पीरियड में दो क्लास 
कैसे ले सकूँगा?"

रोनेवाला लड़का रो रहा था। क्लास के पीछे कुछ लड़के जोर-जोर से हँस रहे थे। बाकी इन लोगों के पास कुछ इस तरह भीड़ की शक्ल में खड़े हो गये थे जैसे चौराहे पर ऐक्सिडेंट हो गया हो। 

प्रिंसिपल साहब ने आवाज तेज करके कहा, " ज्यादा कानून न छाँटो। जब से तुम खन्ना के साथ उठने-बैठने लगे हो, तुम्हें हर काम में दिक्कत मालूम होती है।"

मालवीय प्रिंसिपल साहब का मुँह देखता रह गया। क्लर्क ने कहा, "सरकारी बस वाला हिसाब लगाओ मालवीय। एक बस बिगड़ जाती है तो सब सवारियाँ पीछे आनेवाली दूसरी बस में बैठा दी जाती हैं। इन लड़कों को भी वैसे ही अपने दर्जे में ले जाकर बैठा लो। " 

उसने बहुत मीठी आवाज में कहा, "पर यह तो नवाँ दर्जा है। मैं वहाँ सातवें को पढ़ा रहा हूँ। "

प्रिंसिपल साहब की गरदन मुड़ गयी। समझनेवाले समझ गये कि अब उनके हाथ हाफ़ पैंट की जेबों में चले जायेंगे और वे चीखेंगे। वही हुआ। वे बोले, "मैं सब समझता हूँ। तुम भी खन्ना की तरह बहस करने लगे हो। मैं सातवें और नवें का फर्क समझता हूँ। हमका अब प्रिंसिपली करै न सिखाव भैया। जौनु हुकुम है, तौनु चुप्पे कैरी आउट करौ। समझ्यो कि नाहीं?" 

प्रिंसिपल साहब पास के ही गाँव के रहने वाले थे। दूर-दूर के इलाकों में वे अपने दो गुणों के लिए विख्यात थे। एक तो खर्च का फर्जी नक्शा बनाकर कॉलिज के लिए ज्यादा-से- ज्यादा सरकारी पैसा खींचने के लिए, दूसरे गुस्से की चरम दशा में स्थानीय अवधी बोली का इस्तेमाल करने के लिए। जब वे फर्जी नक्शा बनाते थे तो बड़ा-से-बड़ा ऑडीटर भी उसमें कलम न लगा सकता था; जब वे अवधी बोलने लगते थे तो बड़ा-से -बड़ा तर्कशास्त्री भी उनकी बात का जवाब न दे सकता था। 

मालवीय सिर झुकाकर वापस चला गया। प्रिंसिपल साहब ने फटे पायजामेवाले लड़के की पीठ पर एक बेंत झाड़कर कहा , "जाओ। उसी दर्जे में जाकर सब लोग चुपचाप बैठो। जरा भी साँस ली तो खाल खींच लूँगा।"

लड़कों के चले जाने पर क्लर्क ने मुस्कराकर कहा, "चलिए, अब खन्ना मास्टर का भी नज़ारा देख लें।" 

खन्ना मास्टर का असली नाम खन्ना था। वैसे ही, जैसे तिलक, पटेल , गाँधी, नेहरु-आदि हमारे यहाँ जाति के नहीं, बल्कि व्यक्ति के नाम हैं। इस देश में जाति-प्रथा को खत्म करने की यही एक सीधी-सी तरकीब है। जाति से उसका नाम छीनकर उसे किसी आदमी का नाम बना देने से जाति के पास और कुछ नहीं रह जाता। वह अपने -आप ख़त्म हो जाती है। 

खन्ना मास्टर इतिहास के लेक्चरार थे, पर इस वक्त इण्टरमीजिएट के दर्जे में अंग्रेजी पड़ा रहे थे। वे दाँत पीसकर कह रहे थे ," हिन्दी में तो बड़ी -बड़ी प्रेम-कहानियाँ लिखा करते हो पर अंग्रेजी में कोई जवाब देते हुए मुँह घोडे़-जैसा लटक जाता है।" 

एक लड़का दर्जे में सिर लटकाये खड़ा था। वैसे तो घी-दूध की कमी और खेल -कूद की तंगी से हर औसत विद्यार्थी मरियल घोड़े-जैसा दिखता है, पर इस लड़के के मुँह की बनावट कुछ ऐसी थी कि बात इसी पर चिपककर रह गयी थी। दर्जे के लड़के जोर से हँसे। खन्ना मास्टर ने अंग्रेजी में पूछा, "बोलो, 'मेटाफर' का क्या अर्थ है?" 

लड़का वैसे ही खड़ा रहा। कुछ दिन पहले इस देश में शोर मचा था कि अपढ़ आदमी बिना सींग-पूँछ का जानवर होता है। उस हल्ले में अपढ़ आदमियों के बहुत से लड़कों ने देहात में हल और कुदालें छोड़ दीं और स्कूलों पर हमला बोल दिया। हज़ारों की तादाद में आये हुए ये लड़के स्कूलों, कॉलिजों, यूनिवर्सिटियों को बुरी तरह से घेरे हुए थे। शिक्षा के मैदान में भभ्भड़ मचा हुआ था। अब कोई यह प्रचार करता हुआ नहीं दीख पड़ता था कि अपढ़ आदमी जानवर की तरह है। बल्कि दबी जबान में यह कहा जाने लगा था कि ऊँची तालीम उन्हीं को लेना चाहिए जो उसके लायक हों, इसके लिए 'स्क्रीनिंग ' होना चाहिए। इस तरह घुमा-फिराकर इन देहाती लड़कों को फिर से हल की मूठ पकड़ाकर खेत में छोड़ देने की राय दी जा रही थी। पर हर साल फेल होकर , दर्जे में सब तरह की डाँट-फटकार झेलकर और खेती की महिमा पर नेताओं के निर्झरपंथी व्याख्यान सुनकर भी वे लड़के हल और कुदाल की दुनिया में वापस जाने को तैयार न थे। वे कनखजूरे की तरह स्कूल से चिपके हुए थे और किसी भी कीमत पर उससे चिपके रहना चाहते थे। 

घोड़े के मुँहवाला यह लड़का भी इसी भीड़ का एक अंग था ; दर्जे में उसे घुमा -फिराकर रोज-रोज बताया जाता कि जाओ बेटा, जाकर अपनी भैंस दुहो और बैलों की पूँछ उमेठो; शेली और कीट्स तुम्हारे लिए नहीं हैं। पर बेटा अपने बाप से कई शताब्दी आगे निकल चुका था और इन इशारों को समझने के लिए तैयार नहीं था। उसका बाप आज भी अपने बैलों के लिए बारहवीं शताब्दी में प्रचलित गँडासे से चारा काटता था। उस वक्त लड़का एक मटमैली किताब में अपना घोड़े- सा मुँह छिपाकर बीसवीं शताब्दी के कलकत्ते की रंगीन रातों पर गौर करता रहता था। इस हालत में वह कोई परिवर्तन झेलने को तैयार न था। इसलिए वह मेटाफर का मतलब नहीं बता सकता था और न अपने मुँह की बनावट पर बहस करना चाहता था। 

कॉलिज के हर औसत विद्यार्थी की तरह यह लड़का भी पोशाक के मामले में बेतकल्लुफ था। इस वक्त वह नंगे पाँव, एक ऐसे धारीदार कपड़े का मैला पायजामा पहने हुए खड़ा था जिसे शहरवाले प्रायः स्लीपिंग सूट के लिए इस्तेमाल करते हैं। वह गहरे कत्थई रंग की मोटी कमीज़ पहने था, जिसके बटन टूटे थे। सिर पर रुखे और कड़े बाल थे। चेहरा बिना धुला हुआ और आँखें गिचपिची थीं। देखते ही लगता था, वह किसी प्रोपेगैंडा के चक्कर में फँसकर कॉलिज की ओर भाग आया है। 

लड़के ने पिछले साल किसी सस्ती पत्रिका से एक प्रेम-कथा नकल करके अपने नाम से कॉलिज की पत्रिका में छाप दी थी। खन्ना मास्टर उसकी इसी ख़्याति पर कीचड़ उछाल रहे थे। उन्होंने आवाज बदलकर कहा, "कहानीकार जी, कुछ बोलिए तो, मेटाफर क्या चीज होती है?" 

लड़के ने अपनी जाँघें खुजलानी शुरु कर दीं। मुँह को कई बार टेढ़ा-मेढ़ा करके वह आखिर में बोला , "जैसे महादेवीजी की कविता में वेदना का मेटाफर आता है----। "

खन्ना मास्टर ने कड़ककर कहा, "शट-अप! यह अंग्रेजी का क्लास है।" लड़के ने जाँघें खुजलानी बन्द कर दीं।
वे ख़ाकी पतलून और नीले रंग की बुश्शर्ट पहने थे और आँखों पर सिर्फ चुस्त दिखने के लिए काला चश्मा लगाये थे। कुर्सी के पास से निकलकर वे मेज के आगे आ गये। अपने कूल्हे का एक संक्षिप्त भाग उन्होंने मेज से टिका लिया। लड़के को वे कुछ और कहने जा रहे थे , तभी उन्होंने क्लास के पिछले दरवाजे पर प्रिंसिपल साहब को घूरते पाया। उन्हें बरामदे में खड़े हुए क्लर्क का कन्धा-भर दीख पड़ा। वे मेज़ का सहारा छोड़कर सीधे खड़े हो गये और बोले, "जी , शेली की एक कविता पढ़ा रहा था। " 

प्रिंसिपल ने एक शब्द पर दूसरा शब्द पर दूसरा शब्द लुढ़काते हुए तेज़ी से कहा, " पर आपकी बात सुन कौन रहा है? ये लोग तो तस्वीरें देख रहे हैं।" 

वे कमरे के अन्दर आ गये। बारी-बारी से दो लड़कों की पीठ में उन्होंने अपना बेंत चुभोया। वे उठकर खड़े हो गये। एक गन्दे पायजामे, बुश्शर्ट और तेल बहाते हुए बालोंवाला चीकटदार लड़का था; दूसरा घुटे सिर , कमीज और अण्डरवियर पहने हुए पहलवानी धज का। प्रिंसिपल साहब ने उनसे कहा, "यही पढ़ाया जा रहा है?" 

झुककर उन्होंने पहले लड़के की कुर्सी से एक पत्रिका उठा ली। यह सिनेमा का साहित्य था। एक पन्ना खोलकर उन्होंने हवा में घुमाया। लड़कों ने देखा, किसी विलायती औरत के उरोज तस्वीर में फड़फड़ा रहे हैं। उन्होंने पत्रिका जमीन पर फेंक दी और चीखकर अवधी में बोले, "यहै पढ़ि रहे हौ?" 

कमरे में सन्नाटा छा गया। 'महादेवी की वेदना ' का प्रेमी मौका ताककर चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया। प्रिंसिपल साहब ने क्लास के एक छोर से दूसरे छोर पर खड़े हुए खन्ना मास्टर को ललकारकर कहा," आपके दर्जे में डिसिप्लिन की यह हालत है! लड़के सिनेमा की पत्रिकाएँ पढ़ते हैं! और आप इसी बूते पर जोर डलवा रहे हैं कि आपको वाइस प्रिंसिपल बना दिया जाये! इसी तमीज से वाइस प्रिंसिपली कीजियेगा! भइया, यहै हालु रही तौ वाइस प्रिंसिपली तो अपने घर रही, पारसाल की जुलाई माँ डगर-डगर घूम्यौ।" 

कहते -कहते अवधी के महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की आत्मा उनके शरीर में एक ओर से घुसकर दूसरी ओर से निकल गयी। वे फिर खड़ी बोली पर आ गये, "पढ़ाई-लिखाई में क्या रखा है! असली बात है डिसिप्लिन ! समझे, मास्टर साहब?" 

यह कहकर प्रिंसिपल उमर खैयाम के हीरो की तरह, "मै पानी-जैसा आया था औ' आँधी-जैसा जाता हूँ " की अदा से चल दिये। पीठ-पीछे उन्हें खन्ना मास्टर की भुनभुनाहट सुनायी दी। 

वैज्ञानिकों के सामाजिक उत्तरदायित्व: सामाजिक प्रयोगों में लगे आई आई टी के कतिपय प्राध्यापकगण


- प्रो. अरुण कुमार शर्मा


आई आई टी कानपुर के एक सदस्य के रूप में मुझे गर्व है कि हमारे संस्थान में कई महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पदकों और उपाधियों को प्राप्त प्राध्यापकों/वैज्ञानिकों ने अपनी सेवाएँ दी हैं। इनमें भारत रत्न, भटनागर पुरुष्कार तथा पद्म पुरूष्कार विजेता प्राध्यापक सम्मिलित हैं। किन्तु आई आई टी कानपुर का अपना एक अन्य अनकहा, गौरवशाली इतिहास भी है। यहाँ ऐसे कई प्राध्यापक और कर्मचारी हुए हैं जिन्होने अपने मुख्य कार्य को सुचारु रूप से करते हुये समाज और पर्यावरण के बारे में भी सोचा है। धन्य हैं ऐसे लोग और धन्य है आई आई टी कानपुर की भूमि। मैं जब 1980 में यहाँ आया था तो आई आई टी में ऐसे अनेक लोग थे जो सामाजिक गतिकी के ज्ञान को सबसे बड़ा वैज्ञानिक ज्ञान समझते थे और समय निकाल कर इस क्षेत्र में प्रयोग भी करते थे। प्रो बसंत सरकार, प्रो पी आर के राव, प्रो ए पी शुक्ला उनमें कुछ प्रमुख नाम हैं। शुक्लाजी तो अभी भी पास में ही रहते हैं और कभी कभी परिसर में भी दिख जाते हैं।  इस लेख मे मैं कुछ ऐसे तीन प्राध्यापकों के बारे में लिखना चाहता हूँ। संयोग से तीनों के नाम हिन्दी के अक्षर से ही प्रारम्भ होते हैं। एक महत्वपूर्ण अक्षर है जिससे विद्वता, विप्लव, विज्ञान, विद्रोह, वैभव और विपश्यना जैसे शब्दों की उत्पत्ति भी होती है। ये प्राध्यापक हैं प्रो राहुल वर्मन, प्रो एच सी वर्मा और प्रो महेंद्र वर्मा। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि इस लेख का उद्धेश्य किसी को महिमामंडित करना नहीं है अपितु संस्थान के प्राध्यापकों और छात्रों के मध्य सामाजिक कार्य के मूल्य को स्थापित करना और संस्थान को समाज के प्रति अधिक संवेदनशील बनाना है। 

प्रो राहुल वर्मन इंडस्ट्रियल मैनेजमेंट में प्रोफेसर तथा संप्रति विभागाध्यक्ष हैं। प्रो वर्मन की शोध के प्रमुख विषय लघु उद्योग, संगठनों में प्रजातांत्रिक कार्यप्रणालियाँ, वैश्वीकरण, श्रम संगठन और श्रमिक आंदोलन हैं। अपने शोध विषयों को ध्यान में रखते हुए उन्होने संस्थान के भीतर और बाहर श्रमिकों के अधिकारों, न्यूनतम मजदूरी, ठेकेदारी, तथा संस्थान की मुख्य एम्प्लोयेर के रूम में भूमिका के बारे मे गहन अध्ययन किया है। वे कई बार संस्थान के संकाय सदस्यों के संगठन फैकल्टी फॉरम की संचालन समिति के सदस्य भी रहे हैं। संप्रति आई एम ई डिपार्टमेन्ट के अध्यक्ष हैं। 

जैसा कि सम्पूर्ण देश में हो रहा है, समय के साथ यद्यपि संस्थान में तेजी के साथ विकास किया है, नियमित कर्मचारियों की संख्या में कमी आई है, और ठेकेदारों के माध्यम से काम करने वाले अनियमित कर्मचारियों की संख्या मे काफी वढ़ोतरी हुई है। इस परिवेश में संस्थान के पूर्णरूपेण सजग रहने के वावजूद श्रमिकों के शोषण और उनके प्रति अन्याय के समाचार मिलते रहते हैं। अनेकों समस्याएँ संभावित हैं: न्यूनतम मजदूरी नियमों का पालन न होना, बच्चों की शिक्षा, चिकित्सा सुविधा, दुर्घटना बीमा और कंपनसेशन। ठेकेदारों में संस्थान के नियमों को ताक पर रखकर या कानूनी कमजोरियों का लाभ उठाकर लाभ कमाने की प्रवृत्ति समाज की भांति यहाँ भी संभव है। प्रो राहुल वर्मन एवं संकाय के कई अन्य सदस्य और विद्यार्थी अनियमित कर्मचारियों के साथ जुड़ कर उनकी समस्याओं के बारे में चिंतन और कार्य करते रहें हैं। उनका यह कार्य सफलताओं और असफलताओं का एक लंबा इतिहास है। कितनी महत्वपूर्ण बात है कि कुछ ऐसे भी प्राध्यापक हैं कि जो पुस्तकों, प्रयोगशालाओं और जरनल्स के बाहर जाकर वास्तविक जगत के प्रयोगों में वास्तविक ज्ञान खोजने में लगे हैं। कहना न होगा कि उनकी कक्षाओं और लेखन में पश्चिमी उभरते भारत के सशक्तिकरण के चिंतन का संदेश भी समावेशित रहता है। ऐसे ही कुछ सामाजिक चिंतकों, कार्यकर्ताओं और शुभाकांक्षियों के द्वारा हमारा मंच का गठन हुआ है जहां संबन्धित व्यक्ति सप्ताह में एक दिन बैठ कर श्रमिकों की समस्याओं पर विचार कर सकते हैं। प्रो राहुल वर्मन और अन्य संबन्धित व्यक्तियों के कार्यों से अनेक भेद उजागर हुए हैं। एक समाजशास्त्री के रूप में, और जो मुझे संगठनात्मक कार्य करने का अनुभव है, मेरी दृष्टि में कुछ परिणाम उल्लेखनीय हैं: (अ) संगठन के अभाव में श्रमिकों को शोषण से मुक्त नहीं किया जा सकता; (ब) शक्ति के असंतुलन के कारण श्रमिकों का शोषण हो सकता है; (स) कानून कुछ इस प्रकार के हैं कि वे वास्तविक सामाजिक सम्बन्धों और परिस्थितियों की अनदेखी करते हैं और श्रमिकों को विधिसम्मत लाभ भी प्रायः नहीं मिल पाता; और (द) असमानता की सततता पूंजीवादी विचारधारा के साथ जुड़ी हुई होती है। प्रो राहुल वर्मन के साथ मैं सहमत हूँ कि समाज के सभी वर्गों में शिक्षा, एकता, स्वप्न देखना और संघर्ष करना उनकी प्रगति के आवश्यक तत्व हैं जिन्हे स्थापित करने की आवश्यता है। 

प्रो. एच सी वर्मा और प्रो. महेंद्र वर्मा दोनों भौंतिक विज्ञान विभाग में प्राध्यापक हैं। आज उच्चतर माध्यमिक स्तर पर भौंतिक विज्ञान का शायद ही कोई ऐसा विद्यार्थी होगा जो प्रो एच सी वर्मा को न जानता हो या उसने उनकी लिखी पुस्तक Concepts of Physics न पढ़ी हो। एक हिन्दी फिल्म ने तो उनकी पुस्तक को सामान्य जनमानस तक भी ला दिया है। मैंने स्वयं यह पुस्तक पढ़ी है। मैं कह सकता हूँ कि गणित का सामान्य ज्ञान रखने वाला कोई भी विद्यार्थी उनकी पुस्तक सरलता से समझ सकता है और भौंतिक विज्ञान के मूल तत्वों को जान सकता है। प्रयोगों के माध्यम से विज्ञान को समझाने में प्रो. एच सी वर्मा को पूरे देश में ख्याति मिली है। किन्तु मैं उनके दूसरे स्वरूप के बारे में बात करना चाहता हूँ। प्रो वर्मा ने अनौपचारिक शिक्षा, निर्धन वर्ग की शिक्षा, प्रतिभाशाली छात्रों को आर्थिक सहायता जुटा कर उच्च शिक्षा दिलाने, और सांस्कृतिक विरासत के साथ प्रारम्भिक शिक्षा को जोड़कर समीप के गाँवों में शिक्षा के फैलाव को लेकर बहुत से कार्य किए हैं और अनेकों छात्रों को अपने आस पास के परिवेश से जुड़ने के लिए प्रेरित किया है। प्रो एच सी वर्मा और शिक्षा सोपान (एक स्वैच्छिक संस्था) एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं। शिक्षा सोपान नामक संस्था जिसके साथ प्रो समीर खांडेकरजी भी संबद्ध हैं ग्रामीण क्षेत्रों और निम्न आय वर्ग के छात्रों के लिए महत्वपूर्ण कार्य कर रही है।  वर्माजी से मेरी घनिष्ठ मित्रता है और मैंने उनको समीप से देखा है। वे विद्यार्थियों के लिए समाज मे रहते हुए, कैसे त्याग और समर्पण का जीवन जिया जा सकता है उसके एक अच्छे उदाहरण हैं। सामाजिक संघर्ष, राष्ट्रीय आपदाओं और सामाजिक सशक्तिकरण में उनकी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। मेरी दृष्टि में उनके अनेकों प्रमुख योगदान हैं जैसे आई आई टी कानपुर जैसी आभिजात्य संस्थाओं के विद्यार्थियों को ग्रामीण समाज के साथ जोड़ना, भारतीय चिंतन को आगे बढ़ाना, एवं निर्धन किन्तु प्रतिभाशाली किशोरों को प्रेरित करना और आगे बढ़ाना। जहां तक मैं समझ पाया हूँ प्रो एच सी वर्मा की विचारधारा राष्ट्रीयता की विचारधारा है जिसे उनके फेसबुक की टिप्पणियों से भी स्पष्टता के साथ समझा जा सकता है।
प्रो. महेंद्र वर्मा मेरे तीसरे प्राध्यापक हैं जिनसे हम प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। किसी भी प्रकार के अहंकार से परे, अपने अध्यापन और शोध के कार्यों को करते हुये उन्होने भी अनौपचारिक शिक्षा और कई अन्य क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। प्रो वर्मा ने टरबुलेन्स के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का कार्य किया है और कर रहें हैं। उनके शोध पत्र विश्व के श्रेष्ठतम जरनल्स में छप चुके हैं। जींस और कुर्ते में, सामान्य मुस्कान के साथ टहलते हुए वर्माजी को देख कर कोई भी कह सकता है कि मूल रूप से वो एक संवेदनशील सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वर्माजी जागृति नामक स्वैच्छिक संस्था से जुड़े हुए हैं और दूसरे वर्माजी की भांति सामाजिक कार्यों, मुख्य रूप से अनौपचारिक और प्रारम्भिक शिक्षा से जुड़े हुए हैं। यह देखकर किस को गर्व नहीं होगा कि उनकी प्रेरणा प्राप्त कर अनेकों विद्यार्थी, ‘प्रयास के माध्यम से, निर्माण कार्यों में लगे हुए अनियमित मजदूरों के, और आउटहाउस में  रहने वालों, नौकरों के बच्चों को प्रतिदिन शिक्षा देने जाने के लिए समर्पित हैं। सड़क पर चलते मेरी वर्माजी से कई बार ऐसे ही बातें हुई हैं। वर्माजी पर डा राम मनोहर लोहिया का प्रभाव स्पष्ट है। डा लोहिया ने नमक सत्याग्रह पर समाजशास्त्र मे पी एच डी की उपाधि प्राप्त की थी। मैं डा लोहिया का एक वाक्य कभी नहीं भूल पाऊँगा जिसमे उन्होने कहा था कि भारत का भविष्य ऐसे शूद्र नेता को पैदा करने में है जिसके पीछे ब्राह्मण भी गर्व से चल सके। मुझे लगता है के देश की राजनीति इसे समझने लगी है। इस वाक्य में नेता का शूद्र होना और साथ में उसका वह कद होना कि उसके पीछे ब्राह्मण भी गर्व से चल सकें दोनों ही महत्वपूर्ण बातें हैं। प्रयास का विद्यार्थियों पर क्या प्रभाव पड़ता है इसका ज्ञान मुझे तब हुआ जब मैंने उनके वार्षिक उत्सवों में ऐसे कई भूतपूर्व छात्रों को देखा जो आज देश के शीर्ष संस्थानों में शोध अथवा शिक्षण का कार्य कर रहें हैं। 

मैंने उपरोक्त प्राध्यापकों के साथ कई बार सभाओं, रैलियों और उत्सवों मे भाग लिया है। मैंने यह भी जाना है कि हम समाज के बारे मे सदैव ही सही नहीं सोचते हैं। समय के साथ हम और हमारे विचार भी बदलते हैं। मैंने यह भी जाना है कि पवित्र और मूल्यवान विचार पुस्तकालयों और विशेषज्ञों से नहीं अपितु सामाजिक भागीदारी और संघर्ष से ही पैदा होते हैं। आज हमारे समाज के सामने लाखों यक्ष-प्रश्न हैं जिनके एकांगी और विविध, अनेकों उत्तर खोजने हैं । संस्कृति और सभ्यता के प्रश्न हैं, अस्मिता और जीवन के प्रश्न हैं, विकास के प्रश्न हैं, और मूल्यों के प्रश्न हैं। कुछ के उत्तर अलग अलग हैं और कुछ के समान। लेकिन एक बात जो मैंने उपरोक्त प्राध्यापकों से सीखी है वह यह है कि परमार्थिक और मूल्यवान, वैकल्पिक चिंतन के लिये हमें संस्थान परिसर के बाहर निकालना होगा और चिंतन के समुद्र में नये किनारों को ढूंढना होगा। दुनिया के कई देशों में Engaged Buddhism की आवाज़ उठी है जिसमें मार्क्सवाद, समाजवाद, धर्म, पर्यावरण, अस्तित्व और टिकाऊ विकास के प्रत्यय सम्मिलित हैं। विश्व की सर्वोत्तम वैज्ञानिक संस्था, MIT, में आचार संबंधी अध्ययन केंद्र स्थापित हुआ है और वैज्ञानिकों को नवीन की खोज में पुरातन की ओर देखना पड़ रहा है। क्यों न हम भी उपरोक्त प्राध्यापकों से प्रेरणा लेकर कुछ नया सोचें, अच्छा सोचें और ज्ञान-विज्ञान को वहाँ तक ले जाएँ जो उसका परम लक्ष्य है – मनुष्यता का उद्विकास। व्यष्टि समष्टि के लिए समर्पित हो, और समष्टि व्यष्टि के लिए कल्याणकारी हो। इस के लिए कुछ समय अपने प्रॉफेश्नल कर्तव्यों के बाद समाज के साथ, समाज में अवश्य दे पाऊँ ऐसी अपने मन में धारणा करता हूँ।

(प्रो. शर्मा आईआईटी कानपुर में मानविकी विभाग में समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं)