शनिवार, 28 सितंबर 2013

काफ़िर

- निशांत सिंह 'नफ़स'

यूँ तो बारिश में सुखाया कुछ नहीं जाता 
देखा मगर इस काम में मशगूल काफ़ी हैं |

शाफ़ा बांधकर आया , मस्जिद में जो आया 
बात इतनी है कि इसमें पाकसाफ़ी है !

जो नहीं देखा, 'वो है'- कभी मानो नहीं 
अब तो रूह का बेपर्द होना भी नाकाफ़ी है |

सच्चाई के देखो अगर , पैमाने होते हैं 
सच बताने को काबिल झूठ काफ़ी है | 

कब से हूँ इक सुबह के इंतज़ार में 'नफ़स'
मिलने से पहले की ये काफ़िर रात काफ़ी है |



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें