रविवार, 26 जनवरी 2014

छंद एक चौपाल है

- हिंदी साहित्य सभा
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर |


"कई बार यूँ ही देखा है, ये जो मन की सीमारेखा है, मन तोड़ने लगता है!"  गीतकार योगेश की इन पंक्तियों में एक युवा रचनाकार का मर्म छुपा है| एकांत में एक समय आता है जब अंतस उबाल मारने लगता है और कलम हाथ आते ही कोरा कागज़ छंदों से भर जाता है|


हमारी कविता युवा भावनाओं की मौन चीख है| हम अज्ञेय, महादेवी, प्रसाद, पन्त या निराला जैसे साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़े हुए हैं, उनसे सीखते हुए कविता के बीज अपने अन्दर बोये हैं, मिर्ज़ा ग़ालिब, गुलज़ार, साहिर लुधियानवी के गीतों को सुनकर-पढ़कर लेखन के पौधे को खाद-पानी दिया है|

तरुणाई से युवा होने के इस दौर में अब इस पौधे पर फूल आने लगे हैं- कुछ फूल बनते हैं और सूख जाते हैं, इनमें से कुछ खुशबूदार हैं जिनसे आस पास के लोग भी महक जाते हैं जबकि कुछ साधारण भी हैं, निकट भविष्य में जिनके खुशबूदार और आकर्षक बन जाने की आशापूर्ण घोषणा डार्विनवाद के आधार पर की जा सकती है | लेकिन देखने वालों को ये कैसे भी लगें , पेड़ को और माली को तो ये सभी पसंद आते हैं|

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