सोमवार, 20 जनवरी 2014

यूँ ही कुछ ख़्याल !


- सुरभि ममता कारवा 

मध्य रात्रि का समय है, लगभग डेढ़ बजे है । पर मेरी आंखो में नींद नहीं है। ना ! ना! ना मुझे किसी से प्यार है, ना में बीमार हूँ । पर फिर भी निद्रा देवी मेरे कक्ष में नहीं है । क्योंकि मैंने मैंने ऐसी सुंदरता देख ली है की अब नींद लेना संभव नहीं। आज मैंने अंधकार की रानी रात की सुंदरता देख ली है।

अहा ! कितना मनोरम दृश्य है ! पश्चिम दिशा का एक तारा इस तरह चमक रहा है कि सातों रंग की झलक दे रहा है। वो ऐसे टिमटिमा रहा है जैसे मोहिनी के नाक की नथ का हीरा सूर्यप्रकाश में चमकता है। एक बजे है, फिर भी न जाने क्यू चिड़ियाए चहचहा रही है। उनकी आवाज दु:खों को दूर करने वाले संगीत की भांति प्रतीत होती है। इन स्वर  कोकिलाओं का गान  दूर किसी कुत्ते के भौंकेने से ज़रा सा भंग हो रह है। पर ज्यादा हानी नहीं पहुँचा रहा क्योंकि खूबसूरती के आगे बदसूरती ज्यादा टीक नहीं सकती। इस प्रकृति में आधुनिकता भी ठीक उसी तरह शामिल हो गयी है जैसे जल में नमक। चिड़ियों के सतह लोहपथगामिनी की आवाज़ भी मधुर ही लग रही है। दिन में सरदर्द का कारण, पर्यावरण के दुश्मन कहलाने वाले वाहन भी रात में कष्ट नहीं देते। सूनी सड़क पे इक्का- दुक्का वाहन नज़र आ ही जाता है। अरे ! ये देखो! एक कुत्ता कचरे में मुँह मार रहा है। शायद इन्सानो के इस कचरे में इसे खजाना मिल जाए। क्या विषमता है? किसी का कचरा किसी का खज़ाना है। खैर! छोड़ो! विषमता पर चर्चा करने बैठे तो मेरा प्रकोप ही कागज पर उतरेगा।

इन तारों को देखकर ऐसा लग रहा है की जैसे एकाध को तोड़कर अपने पास रख लूँ। तारों से भरा आकाश मेरी चमकीली सजावट वाले काले- गहरे नीले दुपट्टे सा ही है। इन तारों में, इस रात के अंधकार में मुझे सूर्य प्रकाश से ज्यादा सुंदरता नज़र आती है। क्यों? एक कहानी सुनिए जो मैंने कहीं पढ़ी थी -

एक बार एक राजा ने शांति, सृजन का आभास कराने वाले  सर्वोत्तम चित्र को सम्मानित करने का निश्चय किया। धन राशि के लालच में सभी छोटे-बड़े चित्रकार आए। कोई एकदम शांत समुद्र का चित्रा लेकर आया तो कोई उगते हुए वृक्ष का। कोई दुग्ध से श्वेत झरने का चित्र लाया। पर एक ऐसा चित्र था जिसकी सबने खिल्ली उड़ाई। उस चित्र को मुद्दे से भटका हुआ बताया । चित्र था  भी ऐसा ही। तूफान का चित्र, सब कुछ उड़ रहा था, तेज हवा चल रही थी। पर राजा ने उसे ही विजेता चुना। नहीं!  नहीं! राजा ने कोई रिश्वत नहीं ली थी। पर चित्र सच में शांति व सृजन का प्रतीक था। चित्र के एक कोने में नीचे की तरफ एक छोटा सा फूल खिल रहा था।  उस तूफान में भी न केवल वो फूल खिल रहा था बल्कि मजबूती से खड़ा भी रहा। कहने का मतलब है कि  सूर्य प्रकाश कि क्या प्रशंसा करना? प्रशंसा करनी है तो उन तारों कि करो जो इतनी अंधकारमायी रात में भी रोशनी दे रहे हैं, चाहे छोटी ही सही! जीवन में सर्वाधिक बुरी चीजों में भी कुछ अच्छाई होती है। विध्वंस में भी सृजन होता है। ये तारे आशा के प्रतीक हैं। घनी अंधियारी काली रात में भी, कठिन से कठिनतम परिस्थितियों में भी राह है बशर्ते आप उसे देखो। ये तारे प्रतीक हैं कि सुबह होगी,जैसे सूर्य प्रकाश का ज़ोर  नहीं चला वैसे रात्रि का भी ज़ोर नहीं चलेगा।

इसी बीच मेरी नज़र एक गाय पर अटक गयी है। ये गाय अपने बछड़े को अपने अग्रभाग के पास , स्वयं से चिपका कर बैठी है। कितनी चिंता होती है न माँ को! मैं भी ये लेख छोटे से, जीरो वाट के बल्ब में लिख रही हूँ। अगर मैंने लाइट चलाई और माँ ने देख लिया तो चिंतित हो उठेगी। तुरंत दरवाजा खटखटाकर पूछेगी , तू ठीक तो है? इतनी रात को लाइट चलकर क्या कर रही है? सो जा! इतना पढ़ना ठीक नहीं आदि आदि! अर्द्धनिद्रावस्था में भी  मेरी माँ को बच्चो के चिंता लगी रहती है।
जैसे-जैसे ये लेख खत्म हो रहा है वैसे –वैसे मुझे अपने कमरे कि गर्मी का अहसास हो रहा है। बाहर कितनी ठंडी हवा है और अंदर पंखा भी गरम हवा दे रहा है। बाहर प्रकृति की  गोद है, उसका सौन्दर्य है, उसकी ठंडक है और अंदर आधुनिकता व उपभीगवाद की, मोह माया की गर्मी है।

(लेखिका राम मनोहर लोहिया विधि विश्वविद्यालय, लखनऊ में अध्ययनरत हैं)

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