रविवार, 12 जनवरी 2014

क्षेत्रवाद : आखिर क्यों?



- सुरभि करवा


जोधपुर छोड़ कर यहाँ लखनऊ में रहते हुए 3 महीने हो गए हैं पर एक बार भी विश्वविद्यालय की सीमा से एक कदम तक बाहर नहीं रखा। शायद एक अजीब सा डर था। नया शहर, नई गलियाँ, सब कुछ ही तो नया था। डर था नए रास्तो पर खो जाने का! डर था अपने लड़की होने का! डर था कुछ ऐसी राहों पर चल पड़ने का जहां से वापस आना संभव नहीं! कुछ जानती भी तो कहाँ थी? पहले कभी उत्तर प्रदेश नहीं आयी थी। लखनऊ का बस इतना सा परिचय था कि नवाबों का एक शहर है और उत्तर-प्रदेश की राजधानी भी है।

आज बाहर निकली। एहसास हुआ कुछ भी तो नया नहीं हैं। सब कुछ तो वही है। वैसी ही सड़केंवैसी ही गलियाँ और वैसे ही लोग। वही भीड़ है, वही कचरे के ढेर से झाँकती थोड़ी-थोड़ी सुंदरता, वही यातायात के नियमों का टूटना, वही अक्टूबर का महीना और वही भीनी-भीनी ठंड।

इन्हीं ख्यालों में मैंने लखनऊ और जोधपुर में समानता ढूंढनी शुरू कर दी। ख्यालों की इस लड़ाई ने मुझे एक प्रश्न पर लाकर खड़ा कर दिया कि क्यों हम क्षेत्र के नाम पर लड़ते रहते हैं जबकि सभी जगहों, शहरों राज्यों में एक मूलभूत समानता हैं।

किसी अलग तरह के व्यक्ति या वस्तु को देख कर एक अजीब सी बेचैनी होना, एक अजीब सा डर पैदा होना जायज़ हैं। पर यह जानते हुए कि अंततः हम सब में एक आधारभूत समानता हैं- ये बेचैनी, ये डर नाजायज़ हो जाता हैं, बेईमानी हो जाता हैं।

आखिर क्यों क्षेत्रवाद के ताले हमारे मस्तिष्क को जकड़ लेते हैं और हम इस समानता को नहीं देख पाते? मैं जवाहर लाल नेहरू की उस बात में काफी यकीन रखती  हूँ जब वे कहते हैं कि सारा भारत एकता के एक सूत्र से, एक धागे से बंधा हैं। क्या हम इतनी छोटी सोच रखते हैं कि किसी के अलग पहनावे, अलग भाषा, अलग लहज़े, अलग तहज़ीब को देख कर उससे कन्नी काटने लगे? यहाँ तक कि उसे बुरा समझने लगे? आखिर क्योंआखिर कब तक?

( लेखिका राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, लखनऊ में अध्ययनरत हैं )

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