बुधवार, 1 जनवरी 2014

मकड़ी का जाला



- अभिलाषा सिंह 

आधुनिकता के जाले बुनते हैं
मकड़ी समान इंसान,
इस दुनिया में उलझते हैं
कुछ जाले आसमान में,
भूल जाते हैं लेकिन 
कि ये सब धूल है,
खो जाते हैं इसमे
ढूंढते हुए नए आकाश।



पर कुछ समय बाद
यही खोना
एक तीखा काँटा बन जाता है। 

(लेखिका राम मनोहर लोहिया विधि विश्वविद्यालय में अध्ययनरत हैं)

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