मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

माँ, मैं कायर नहीं !

- श्री सोमनाथ डयानक

एक उच्चतम शिक्षण संस्थान का हॉस्टल क्रमांक चार| कैंटीन से उठती हुयी काफी की महक और गलियारों से आता हुआ छात्रों का उल्लास भरा शोर, आज पियूष को आहत कर रहे थे| हॉस्टल का ये विशिष्ट वातावरण कल तक उसके अंदर एक स्फूर्ति और ताजगी भर देता था, और फ्रेंड्स के साथ रूम में बैठ कर वह भविष्य की नयी नयी तकनीकी डिजाइन करता था| किन्तु आज वह हताशा के गहन अन्धकार में जा पंहुचा था| अभी कुछ महीने पूर्व ही इस संस्थान में आने का गौरव उसे प्राप्त हुआ था| गृह-नगर के प्रत्येक घर में उसके इस अभूतपूर्व चयन की चर्चा हुयी थी| लेकिन आज मिड-सेम के दौरान लगातार दूसरा पेपर बिगड़ने से वह व्याकुलता की सीमा के लाल निशान पर जा पंहुचा था| यद्यपि वह समझ रहा था कि यह दौर अनायास ही नहीं आ गया है| दरअसल यहाँ अध्ययन के कुछ बदले हुए स्वरुप के साथ अब तक वह अपना सामंजस्य नहीं बैठा पाया था| संभवतः उसके सरल मन-मस्तिष्क ने एक प्रतिष्ठित संस्थान में हुए अपने चयन को ही जीवन की अंतिम उपलब्धि मान लिया था| और इस सोच के चलते उसने एक नये सिस्टम के साथ तालमेल बैठाने या समय एवं परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढालने के प्रयास ही नहीं किये थे| प्रारंभ के कुछ दिनों तक तो उसने अपनी समस्याओं को मित्रों के समक्ष रखा भी, किन्तु जैसे जैसे दिन गुजर रहे थे उसकी सोच भी बदलती जा रही थी| अब किसी के साथ अपनी समस्या शेयर करने में उसे कठिनाई महसूस होने लगी थी| यह सोच कर कि वह अन्य साथियों के साथ नहीं चल पा रहा है, वह स्वयं को ही कमजोर मानकर क्रमशः हीन भावना का शिकार होने लगा| अपरिचित सी व्यवस्था एवं इससे कभी न उबर पाने का डर उस पर हावी हो गया था| साथियों से दूरियां बढ़ गयी थी, और वह गुम-सुम सा रहने लगा था| 
       
नये सिस्टम को समझने एवं उसके अनुसार स्वयं को ढालने की जगह उसने स्वयं को ही कमतर आंकने की भारी भूल की थी| लेकिन अब तो देर हो चुकी थी| उसके प्राप्तांक संस्थान के मानक स्तर से नीचे आ चुके थे| घर वालों को फोन पर वह केवल इतना बता पाया था कि पेपर बिगड़ गया है| अब वह क्या करेगा, साथी क्या सोचेंगे, अपने गृहनगर किस मुँह से जाएगा इत्यादि सोचते सोचते कितने घंटे बीत गए उसे पता ही न चला| कुछेक कमरों को छोड़कर लगभग सारा हॉस्टल अँधेरे के आगोश में जा चुका था| सुबह के तीन बज चुके थे| पास ही पटरियों से गुजर रही रात्रिकालीन सन्नाटे को तोड़ती हुई ट्रेन की कूक भी पियूष का ध्यान नहीं भंग कर सकी थी| नींद कोसों दूर थी| वह तो बस सोचे जा रहा था| माँ ने तो दिलासा दे दी है कि “हिम्मत नहीं हारना, सब ठीक हो जायेगा| परन्तु उनको कैसे बताएगा कि उसे अब निकाला भी जा सकता है| अपने गृहनगर लौटकर वह लोगों से क्या कहेगा? लोग तो यही कहेंगे कि पियूष इस संस्थान के लायक ही नहीं था| और हर बार वह हीन भावना से भर उठता| शायद मैं इस संस्थान के लिए उपयुक्त नहीं हूँ, वरना मेरे साथ ही ऐसा क्यों? उसे मात्र हताशा भरे दृश्य ही दिखाई दे रहे थे, जैसे वह अपने कमरे से निकल रहा है और सभी उसे ही घूर रहे हैं एक असफल व्यक्तित्व के रूप में| नहीं नहीं...... मैं इनसे नजरें नहीं मिला सकूंगा| मैं यहाँ रुकूंगा ही नहीं| वह कमरे से बाहर आ गया| लेकिन वह जायेगा कहाँ ? अब तो घर भी नहीं जा सकता, अब क्या करेगा? सुबह की हल्की ठण्ड में भी उसकी हथेलियों पर पसीना आ रहा था| अपने कॅरिअर से कहीं ज्यादा लोक-लाज का भय उसके मन मस्तिष्क पर ऐसा दबाव बना रहा था कि उसकी मनोदशा बिगड़ती चली जा रही थी| वह अवसाद के गहन अंधेरों में जा चुका था जहां उसे अब कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था| आखिरकार एक वीभत्स निर्णय के साथ वह रेल-पटरी की ओर बढ़ने लगा | अवसाद के जंगल में भटकते हुए वह रेल पटरियों के काफी नजदीक आ गया| अँधेरा उसके इस अवसाद पर मरहम का काम कर रहा था| क्योंकि दिन निकलने पर उस समाज का सामना होना था जिससे वह डर रहा था| वह ट्रेन का इंतज़ार करता हुआ पटरी के पास ही बैठ गया| यद्यपि जीवन-द्वंद लगातार चल रहा था किन्तु कायरता हर बार विजित हो जाती, और वह ट्रेन की प्रतीक्षा में और अधिक व्याकुल हो जाता|
अचानक परिदृश्य परिवर्तित हुआ| उसकी नजर गाय के एक बछड़े पर पडी जो कुछ ही दूरी पर पटरी से उठने का असफल प्रयास कर रहा था| प्रकृति-प्रदत्त कौतुहल अभी भी विद्यमान था| उसने पास जाकर देखा बछड़े का एक पैर काम नहीं कर रहा था | जीवन के द्वंद में हार चुके पियूष पर इस घटना का कुछ विशेष प्रभाव नहीं पड़ा| समय आगे चला और अब दूर से आ रही ट्रेन की कूक भी सुनायी देने लगी| अपनी विपरीत सोच के चलते कमजोर हो चुके पियूष का आत्मनियंत्रण लगभग खत्म हो चुका था| रात्रि के अन्धकार में अब धीरे धीरे प्रकाश कण भी मिलने लगे थे| अतः जल्दी से जल्दी वह इस अंधकार में हमेशा के लिए मिल जाना चाहता था|

तभी बछड़ा व्याकुल होकर रम्भाने लगा| सुबह के धुंधलके में दूर कहीं एक आकृति दिखाई देने लगी जो धूल के गुबार के साथ-साथ इसी ओर चली आ रही थी| इस आकृति के समीप आने पर दृश्य स्पष्ट होने लगा| यह एक गाय थी जो अपने बछड़े की करुण पुकार सुनकर पूरी शक्ति के साथ दौड़ती आ रही थी| गति के साथ तेज हो उठी उसकी साँसे नथुनों से फूंस के रूप में निकलकर जमीन से टकरा रही थी, जिसका प्रतिबिम्ब धूल के गुबार के रूप में उसकी भाव-विव्हलता को व्यक्त कर रहा था| इस दृश्य को देखकर पियूष विचलित हो गया| बरबस ही उसे अपना बचपन याद आ गया| “कैसे पहली रोटी की मांग करने पर माँ मना कर देती थी कि यह तो गाय के लिए है, और कितने प्यार से वह रोटी खिलाने के लिए गाय को पुकार लगाता था|” उसे दौड़ती आ रही उस गाय में अपनी माँ दिखाई देने लगी| “माँ कितनी व्याकुल हो उठेगी जब उसे ज्ञात  होगा कि उसका बेटा .......|” नहीं नहीं मैं क्या कर रहा हूँ? मैं लोक-लाज के चलते अपने माता–पिता, परिवार को इतना भीषण दर्द कैसे दे सकता हूँ? नहीं नहीं मैं समाज से लड़ सकता हूँ, मैं बहुत कुछ कर सकता हूँ, इस बछड़े को मैं बचा सकता हूँ| अवसाद के गहन अँधेरे में मानो प्रकाश की कोई किरण चमक उठी थी| ट्रेन नजदीक थी| वह बछड़े को बचाने के लिए दौड़ पड़ा| बछड़ा बच गया था, और गाय उसे लगातार चाट रही थी| पियूष की आँखें खुल चुकी थी| जीवन को सार्थक करने के लिए एक ही नहीं वरन अनेकों काम पड़े हुए हैं| वह जीवों के लिए काम कर सकता है, वह जीवन से हार मान चुके लोगों के लिए काम कर सकता है, वह समाज के हित में कार्य कर सकता है| उसके मन-मस्तिष्क में बड़े-बड़े नायकों के जीवन-चरित्र उभरने लगे जो विपरीत परिस्थितियों में रहते हुए, कई बार हार कर भी, किन्तु दृढ संकल्प एवं कठोर श्रम के द्वारा आखिरकार विजित हुए| पूर्व दिशा में सोने का गोला लालिमा बिखेरने लगा था | अन्धकार की परते एक-एक कर छंटती जा रही थी| गाय ने एक बार अपने बड़े-बड़े नयनो से पियूष को देखा, मानो धन्यवाद दे रही हो| गाय का इस तरह से निहारना उसे सुखद अहसास करा गया| "माँ मैं कायर नहीं..."- बड़बड़ाता हुआ वह हॉस्टल की ओर वापस चल दिया|
 
( लेखक आई आई टी कानपुर में पदार्थ विज्ञान कार्यक्रम के तकनीकी अधीक्षक पद पर कार्यरत हैं )

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