- ओम प्रकाश शर्मा
आम के हरे दरख़्त के तले,
चंद सूखे पत्ते पड़े हैं सिमटे हुए,
रगें...
ढीली पड़ चुकी हैं इनकी,
लहू...
सूख चूका है इनका|
लफ्ज़ लरजते थे
इन पर कभी,
अब मद्धम पड़ चुके हैं|
पाँव टकरा जाता है
इनसे किसी का तो
करवट लेते चीं-चूं सा
कुछ बोल देते हैं.
जुम्बिश कम ही है इनमें
कोई हवा का झोंका आये
उड़ा कर ले जाये इन्हें,
दबा दे मिटटी की दरारों में,
मिटेंगे, गलेंगे, उसी मिटटी में कहीं,
फिर उगेंगे किसी दरख़्त की शाख पर,
फिर उकेर देगा वक़्त,
लफ़्ज़ों के, दस्तानों के,
लरजते मोती इन पर |
( लेखक ऑल इंडिया रेडियो, कानपुर में वरिष्ठ कार्यक्रम-प्रस्तोता हैं )
आम के हरे दरख़्त के तले,
चंद सूखे पत्ते पड़े हैं सिमटे हुए,
रगें...
ढीली पड़ चुकी हैं इनकी,
लहू...
सूख चूका है इनका|
लफ्ज़ लरजते थे
इन पर कभी,
अब मद्धम पड़ चुके हैं|
पाँव टकरा जाता है
इनसे किसी का तो
करवट लेते चीं-चूं सा
कुछ बोल देते हैं.
जुम्बिश कम ही है इनमें
कोई हवा का झोंका आये
उड़ा कर ले जाये इन्हें,
दबा दे मिटटी की दरारों में,
मिटेंगे, गलेंगे, उसी मिटटी में कहीं,
फिर उगेंगे किसी दरख़्त की शाख पर,
फिर उकेर देगा वक़्त,
लफ़्ज़ों के, दस्तानों के,
लरजते मोती इन पर |
( लेखक ऑल इंडिया रेडियो, कानपुर में वरिष्ठ कार्यक्रम-प्रस्तोता हैं )
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