- सोमनाथ डनायक
आइये आपको ले चलते हैं भारतीय प्रौद्योगिकी
संस्थान के पदार्थ विज्ञान कार्यक्रम में स्थित “नैनो अभियांत्रिकी पदार्थ
प्रयोगशाला” की ओर| प्रवेश द्वार क्रमांक 3 के समीप
स्थित यह विभाग अकादमी परिसर के पश्चिमी सिरे पर स्थित है| विभाग के मुख्य द्वार
के समीप खड़े पाम के वृक्ष, पुष्प वाटिका एवं सेमल के वृक्ष से उड़ते हुए कपास वातावरण
को रमणीय बनाते हैं| यदि आप किसी सुरम्य पहाड़ी स्थल की कल्पना में खो गए हों तो
बता दें कि मुख्य द्वार के
अंदर प्रवेश करते ही आपको सैलानी नहीं मिलेंगे| बेशक यहाँ कुछ महिलायें एवं पुरुष
अपने हाथों में सैम्पल बॉक्स, डेसिकेटर या कुछ विचित्र से दिखाई पड़ने वाले यंत्र
लिए हुए अवश्य नजर आते हैं| और ये होते हैं हमारे शोधार्थी, जो कि अपने नव निर्मित
पदार्थों के अभिलाक्षणिक विश्लेषण (कैरेक्टराईजेशन) हेतु एक्स-रे,
इलेक्ट्रान-सूक्ष्मदर्शी या चुम्बक विज्ञान आदि प्रयोगशालाओं में भ्रमण करते रहते
हैं| प्रयोगशाला पंहुचने से पहले आइये समझने की कोशिश करते है कि नैनो साइंस है
क्या?
नैनो किसी इकाई का एक अरबवां भाग होता है
जो अति सूक्ष्मतम है| 1 नैनोमीटर 1 मीटर का दस करोड़वाँ भाग (10-9 मी.)
होता है| तुलनात्मक रूप में मनुष्य का एक औसत मोटाई का बाल 1 नैनोमीटर का 1 लाख गुना होता है |
प्रायोगिक गणनाओं के अनुसार पदार्थों में निहित दो परमाणुओं के मध्य की दूरी लगभग 10 नैनोमीटर होती है| इसे हम 1
आंग्स्ट्रॉम कहते हैं| सरल शब्दों में तकनीकी कौशल के माध्यम से पदार्थों एवं
उपकरणों का नैनो स्तर पर प्रबंधन एवं निर्माण ही नैनो तकनीकी के अंतर्गत आता है|
नैनो तकनीकी के सम्बन्ध में प्रथम परिकल्पना (देअर आर प्लेंटी आफ रूम्स एट दी
बाटम) सन 1959 में एक भौतिकविद रिचर्ड फेंमन द्वारा की गयी थी| “नैनो टेक्नोलॉजी”
शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1974 में प्रो. नोरियो तानिगुची ने किया जो एक अमेरिकन
इंजीनिअर किम इरिक ड्रेक्सलर द्वारा लिखित पुस्तक “इंजिन्स ऑफ क्रियेशन : दी कमिंग
इरा ऑफ नैनो टेक्नोलॉजी” के द्वारा अत्यधिक प्रचारित
हुआ| प्रारंभ में नैनो तकनीकी एक वैज्ञानिक परिकल्पना मात्र थी जिसे स्कैनिंग
टनलिंग माइक्रोस्कोप (एस.टी.एम.) की खोज ने वास्तविकता में बदल डाला| इसकी सहायता
से न केवल परमाणु को देखा जा सकता है बल्कि इसका प्रबंधन भी किया जा सकता है|
हम सभी जानते हैं कि हमारे आसपास दिखाई देने वाले सभी पदार्थ, पेड़–पौधे
यहाँ तक कि हम सभी परमाणुओं से मिलकर बने होते हैं| यह किसी भी पदार्थ में निहित सूक्ष्मतम
इकाई होती है| विभिन्न पदार्थों में इन परमाणुओं की व्यवस्था भिन्न भिन्न हो सकती
है| ये व्यवस्थाएं घनाभ, आयताकार, षट्कोणीय इत्यादि हो सकती हैं जो प्रमुख रूप से 7 प्रकार
की होती हैं| इन प्रकारों के अनुरूप किनारों पर, मध्य में अथवा सतहों के मध्य में परमाणु
या उनके समूह (मोटिफ) स्थित होते हैं| परमाणुओं की ये विभिन्न संरचनायें इकाई कोशाणु
(यूनिट सेल) कहलाती है जो त्रिआयामी बिंदु क्रम (स्पेस लैटिस) में अपनी
पुनरावृत्ति करती है| इकाई कोशाणु की इस पुनरावृत्ति से क्रिस्टल का निर्माण होता
है एवं दिखाई देने वाले विभिन्न क्रिस्टलाइन पदार्थ इन्ही क्रिस्टलों का समूह होते
हैं| विभिन्न पदार्थों के अभिलक्षण उनकी इकाई कोशाणु की संरचना पर निर्भर रहते
हैं| उदाहरण के तौर पर हीरा और ग्रेफाइट दोनों ही कार्बन परमाणुओं से मिलकर बने
होते हैं किन्तु दोनों के इकाई कोशाणु की संरचना में अंतर होने के कारण दोनों
पदार्थों के गुणधर्म भिन्न होते हैं| जहां हीरा अभी तक उपलब्ध पदार्थों में सबसे
कठोर है वहीं ग्रेफाइट अत्यंत नरम होता है| ग्रेफाइट विद्युत का
सुचालक है जबकि हीरा नहीं| हीरे की यूनिट सेल घनाभ होती है जिसमें प्रत्येक कार्बन
परमाणु चतुष्फलक पर स्थित अपने निकटतम चार परमाणुओं, जो कि बराबर दूरी पर होते हैं,
के साथ मजबूत बंध बनाते हैं| कोई भी परमाणु इस दृढ संरचना से नहीं निकल सकने के
कारण ही हीरा इतना कठोर होता है| जबकि ग्रेफाइट के इकाई कोशाणु की संरचना षट्कोणीय प्रकार की होती
है जिसमें प्रत्येक कार्बन परमाणु अपनी ही परत में स्थित एवं निकटतम तीन परमाणुओं
के साथ तो मजबूत बंध बनाते हैं किन्तु विभिन्न परतों के मध्य का बंध काफी कमजोर
होता है जिससे ये परतें परस्पर गति कर सकती हैं| और यही ग्रेफाइट को नरम बनाता है|
यदि किसी प्रकार हम सीस पेन्सिल में स्थित ग्रेफाइट के परमाण्विक स्तर तक पंहुच कर
इसके षट्कोणीय इकाई कोशाणु को घनाभ रूप में (हीरे के सामान) व्यवस्थित कर दें तो
यह हीरे में तब्दील हो जायेगा| सामान्य शब्दों में पदार्थों के परमाणविक स्तर पर
पंहुच कर कारीगरी करना ही नैनो तकनीकी के अंतर्गत आता है|
नैनो तकनीकी किसी विशिष्ट इन्जीनिअरिंग या विज्ञान का अध्ययन क्षेत्र
नहीं वरन कई प्रकार की तकनीकों, प्रौद्योगिकी, एवं
प्रसंस्करण का समूह है, जिसके अंतर्गत नैनो मटेरियल्स, नैनोरोबोटिक्स, नैनो
इलेक्ट्रॉनिक्स, नैनो मैकेनिक्स, नैनो मेडिसिन्स इत्यादि विषय आते हैं| ये सभी
विषय भले ही अलग अलग हैं किन्तु इन सभी में जो समान है वह है मापन का पैमाना| सर्वमान्य
धारणा के अनुसार नैनो तकनीकी का कार्यक्षेत्र 1 से 100
नैनोमीटर के मध्य का होता है| 100 नैनोमीटर से ऊपर का मापन क्रमशः माइक्रो एवं मेक्रो स्केल (प्रचलित वृहत पैमाना जिसका
हम दैनिक जीवन में उपयोग करते हैं) के अंतर्गत आता है साथ ही 1
नैनोमीटर से नीचे का पैमाना अॅटामिक स्केल कहलाता है| देखा गया है कि 100 नैनोमीटर के नीचे
जाने पर पदार्थों के गुण एवं अभिलक्षण आश्चर्यजनक रूप से बदल जाते हैं| उदहारण के
तौर पर नेनो स्केल पर तांबा पारदर्शी हो जाता है| चांदी के नैनो चूर्ण के एंटी
बैक्टीरियल और एंटी फंगल होने का पता चला है| कई दवाओं में इसके प्रयोग के साथ साथ
इस पर अनेकों वैज्ञानिक शोध चल रहे हैं| नैनो स्केल पर पदार्थों के स्वभाव में
होने वाले इस परिवर्तन के पीछे दो मुख्य कारण हैं| पहला है “क्वांटम मेकेनिकल
प्रभाव” जो कि अत्यंत लघु विस्तार पर कार्य करता है| दूसरा है “पृष्ठक्षेत्र एवं
आयतन का अनुपात” बढ़ जाना| यह अनुपात पदार्थों की क्रियाशीलता के क्षेत्र में बहुत
महत्वपूर्ण होता है| इसे इस तरह समझा जा सकता है कि यदि एक बड़े लड्डू को तोड़कर कई
छोटे छोटे लड्डू बना दिए जाएँ और सभी छोटे लड्डुओं के सतह के क्षेत्रफल को जोड़ा
जाये तो यह उस बड़े लड्डू के सतह के क्षेत्रफल से बहुत अधिक होगा| इस प्रकार नेनो स्तर पर पदार्थ की बाहरी सतह से
परमाणुओं की दूरी बहुत ही कम होगी एवं ये परमाणु उच्च ऊर्जा अवस्था (हाई इनर्जी
स्टेट) को प्राप्त करके पदार्थ के गुण-धर्म को अत्यधिक प्रभावित करेंगे| यही कारण
है कि धातु उत्प्रेरकों की क्रिया शीलता उनके कणों का आकार घटाने पर बढ़ जाती है|
सोना जो कि मेक्रो स्केल पर रासायनिक रूप से अक्रिय धातु है, नैनो स्केल पर न केवल
अत्यधिक क्रियाशील हो जाता है बल्कि इसका गलनांक भी कम हो जाता है| संक्षिप्त में
नैनो तकनीकी, पदार्थों का नैनो विस्तार पर नियंत्रित प्रबंधन कर विशिष्ट
गुण-धर्मों वाले पदार्थों का निर्माण करने की अनूठी तकनीकी है|
और बातों ही बातों में हम आ पंहुचे हैं “नैनो अभियांत्रिकी पदार्थ
प्रयोगशाला” यानी अपनी मंजिल तक| अरे! यहाँ तो माइक्रोवेव ओवेन भी रखा हुआ है ?
ये खाना पकाने के लिए नहीं है| इसका उपयोग
ग्रेफाईट के अपपर्णन (एक्सफोलिएशन) के लिए किया जाता है| इसमे ग्रेफाईट की मोटी
पर्त को नैनो स्तर की असंख्य पर्तों में विभाजित किया जाता है, जिसे ग्रॅफीन कहते
हैं| इसे बनाने के लिए गंधक अम्ल एवं पोटेशियम परमैग्नेट जैसे अभिकर्मक के उपयोग से
ग्रेफाईट का आक्सीकरण किया जाता है जो इसकी परतों के बीच की दूरी बढ़ाने में सहायक
होता है| ग्रेफाईट
आक्साइड माइक्रोवेव्स का अच्छा अवशोषक है| डीआक्सीजेनेशन
क्रिया को सक्रिय करने के लिए अल्प मात्रा में ग्रॅफीन मिलाकर इसे माइक्रोवेव
ओवेन में रख दिया जाता है| इस तरह ग्रेफाईट के असंख्य परतों में टूटने से एकल
परामाणु पर्त वाली ग्रॅफीन प्राप्त हो जाती है| इस पर्त की मोटाई एक सामान्य पेपर
का एक लाखवाँ भाग या उससे भी कम हो सकती है| यह कार्बन का द्विआयामी
अपरूप (टू डायमेंशनल एलोट्रोप) है| द्विआयामी इसलिए क्योंकि
नैनो स्तर पर होने के कारण इसकी मोटाई नगण्य होती है| यह अद्भुत रूप से
हल्का और मजबूत पदार्थ है जिसकी उष्मा चालकता (थर्मल कन्डक्टिविटी) एवं इलेक्ट्रॉनिक
मोबिलिटी अन्य पदार्थों के मुकाबले बहुत अधिक होती है| इस तरह उपयोग की दृष्टि से
यह पदार्थ इलेक्ट्रॉनिक्स, अधिक दक्षता वाले सोलर सेल और मिश्रित-पदार्थों से लेकर
अंतरिक्ष विज्ञान तक अपनी सार्थकता सिद्ध करता है|
प्रयोगशाला में सी.वी.डी. नामक एक विशिष्ट प्रणाली भी यहाँ का एक
प्रमुख आकर्षण है| इसमें विभिन्न गैस सिलिंडरों से निकलती हुयी कुछ नलियाँ कांच के
कई बल्बों जिनमें नीले एवं सफ़ेद से दिखाई देने वाले पदार्थ भरे हुए हैं, से गुजरती
हुयी दिखाई देती हैं| इस प्रणाली का अंतिम सिरा निकलकर एक विद्युत भट्टी
में जाता है एवं भट्टी के दूसरे सिरे से किसी गैस के लगातार हो रहे रिसाव का आभास
मिलता है| इसे समझने में हमारी मदद की यहाँ के एक वरिष्ट शोधार्थी ने| यह है
रासायनिक वाष्प निक्षेपण प्रणाली (केमिकल वेपर डिपॅाज़ीशन सिस्टम)| इस प्रणाली के
उपयोग से यहाँ प्रायोगिक स्तर पर सी.एन.टी. (कार्बन नेनो ट्यूब) का निर्माण किया
जाता है| सी.एन.टी. वास्तव में ग्रॅफीन की पर्त का नलीनुमा प्रतिरूप है, जिसका
व्यास 1 से 50 नैनोमीटर तक हो
सकता है| यह आधुनिक विज्ञान के लिए एक रोमांचकारी पदार्थ है जो स्टील से कई गुना
मजबूत एवं हीरे से भी अधिक सामर्थ्य वाला है| अन्य फाइबर पदार्थों की तुलना में यह
अत्यधिक कठोर एवं साथ ही साथ विद्युत एवं ऊष्मा का बहुत
अच्छा सुचालक है|
इसे बनाने के लिए किसी हाईड्रोकार्बन गैस को क्रमश: सिलिका जेल एवं
कैल्सियम क्लोराइड जैसे नमी एवं अशुद्धि शोषक पदार्थों के बल्बों से गुजारते हुए
एक विद्युत भट्टी
में प्रवाहित किया जाता है| इस भट्टी का तापमान 600 से 1100 डिग्री सेंटीग्रेड तक हो सकता है, जहाँ
हाइड्रोकार्बन अपने अवयवों में विखंडित हो जाता है| आयरन, कोबाल्ट या निकिल जैसे किसी
उत्प्रेरक को भट्टी में रखा या प्रवाहित किया जाता है, जिन पर कार्बन वाष्प के
लगातार जमा होने से सी.एन.टी. ग्रो करती है| वायु की क्रियाशीलता से बचाने हेतु यह सारी प्रक्रिया निर्वात या किसी अक्रिय गैस
जैसे नाईट्रोजन की उपस्थिति में की जाती है| यहाँ हम देखते हैं कि कार्बन की इन नैनो नलियों
का निर्माण एक स्वत: प्रक्रिया के रूप में होता है जिसमे पदार्थ की सबसे छोटी इकाई यानी कि परमाणु
लगातार जुड़कर नयी रचना करते हैं इसलिए नैनो साइंस की भाषा में इसे “बाटम अप
एप्रोच” कहा जाता है| इसी तरह ग्रेफाईट की पर्त को अपपर्णन के द्वारा
असंख्य नैनो परतों में विभाजित कर ग्रॅफीन बनाने की प्रक्रिया को “टॉप डाउन
एप्रोच” कहते हैं| अत्यधिक हल्का और मजबूत
पदार्थ होने के कारण सी.एन.टी. का उपयोग हल्की और अत्यधिक मजबूत कारों, वायुयान
एवं स्पेस एलीवेटर से लेकर अनेक कार्यों में किया जा सकता है|
तुलनात्मक रूप से अजीवित पदार्थों के लिए नैनो तकनीकी नयी हो सकती है
परन्तु जीवित के क्षेत्र में नैनो तकनीकी नयी नहीं है| उदहारण स्वरुप हमारा शरीर
विशिष्ट क्रम में स्थित असंख्य जीवित कोशिकाओं से मिलकर बना होता है, जो कि एंजाइम्स
के बारीक एवं उत्कृष्ट कार्यप्रणाली के उपयोग से विभिन्न परमाणुओं एवं अणुओं को
जीवनोपयोगी जटिल माइक्रोस्कोपिक संरचनाओं में परिवर्तित करते हैं| इन जीवित
प्राकृतिक पदार्थों में अत्यधिक दक्षता एवं क्षमता समाहित होती है| जैसे कि सौर
उर्जा को सोखने की क्षमता, खनिज द्रव्यों एवं पानी को जीवित कोशिका में बदलना,
तंत्रिका कोशिका में विशाल आंकड़ा-भण्डारण एवं इसका संचालन, डी.एन.ए. अणु में संचित
असंख्य बिट जानकारी की कुशलतापूर्वक प्रतिकृति तैयार करना इत्यादि | नैनो तकनीकी अभी अपने आरम्भ पर है| समय के साथ
इसके प्रयोग के द्वारा वर्तमान
उद्योगों में
नाटकीय बदलाव देखने मिल सकते हैं| कार्बन, सिलिकन एवं हाइड्रोजन जैसे बहुतायत में
पाए जाने वाले पदार्थों के अणुओं को इच्छित विन्यास के रूप में प्रबंधित कर नैनो
संरचना वाले ऐसे पदार्थ तैयार किये जा सकेंगे जो प्रत्येक विशिष्ट उपयोग के लिए
सटीक एवं वांछित गुणों वाले होंगे| इन पदार्थों के निर्माण के लिए बड़ी बड़ी मशीनों,
चिमनियों या अत्यधिक शारीरिक श्रम की आवश्यकता नहीं होती, वरन इनकी वृद्धि रासायनिक
उत्प्रेरकों एवं कृत्रिम विकर (सिंथेटिक एंजाइम) के साथ संयोजन कर अथवा सांचागत (पैटर्निंग)
एवं स्वत: निर्माण (सेल्फ एसेम्बलिंग) जैसी नयी तकनीकी के द्वारा पूर्व
निर्धारित प्रारूप में की जा सकती है| नैनो तकनीकी भविष्य की कुंजी है, और कोई
आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में यह विश्व में क्रांतिकारी परिवर्तन लायेगी| तो
क्या हम ऐसी कल्पना कर सकते हैं कि आने वाले समय में हम आधे मनुष्य और आधे यंत्र
हो जायेंगे, और भुलक्कड़ लोगों के लिए एक छोटी सी मॅमोरी चिप शरीर में प्रत्यारोपित
की जाएगी, जो हमारे तंत्रिका तंत्र के द्वारा संचालित हो
सकेगी?
(लेखक संस्थान में पदार्थ विज्ञान कार्यक्रम के तकनीकी अधीक्षक के पद पर कार्यरत हैं)
very good.
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